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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

विरत नहीं करते, चाय और कॉफीकी दूकानों और तमाम रसोई-घरोंकी तरफसे अपनी आँखें बन्द नहीं कर लेते, जबतक हम स्वास्थ्यको ठीक बनाये रखनेके लिए जो भोजन आवश्यक है उसीसे सन्तुष्ट नहीं होते और जबतक उत्तेजक, उष्ण और दाहकारी मसालोंसे, जिन्हें हम भोजनमें मिला लिया करते हैं, छुटकारा पानेको तैयार नहीं हो जाते, तबतक इस तरह प्राप्त होनेवाली अनावश्यक, बिलकुल फाजिल, उत्तेजक स्फूर्तिका संयमन करना हमारे लिए सम्भव नहीं होगा। यदि हम ऐसा नहीं करते तो हम अपनी शक्ति और हमें दी गई पवित्र धरोहरका भी अपव्यय करते रहेंगे। इस प्रकार खाने-पीने और विषयोंके सेवनमें डूबकर हम पशुओंसे भी पतित हो जायेंगे। आहार और विहार तो पशु भी करते हैं किन्तु क्या आपने किसी घोड़े या गायको जीभके स्वादके पीछे पड़ा हुआ देखा है? क्या आप इसे सभ्यता अथवा वास्तविक जीवनका लक्षण मानते हैं कि हम अपने व्यंजनोंकी संख्या इतनी बढ़ाते चले जायें कि हम यह तक न जान पायें कि हम क्या कर रहे हैं और नये-नये व्यंजनोंकी तलाशमें बिलकुल दीवाने होकर मसालेदार चटपटे भोजनोंका विज्ञापन छापनेवाले अखबारोंके पीछे दौड़ते फिरें?

अस्तेय-व्रत

मैं कहना चाहता हूँ कि हम [सब] एक अर्थमें चोर हैं। जिस चीजकी मुझे तत्काल जरूरत नहीं है अगर मैं उसे लेकर रख लेता हूँ तो किसीको उससे वंचित कर रहा हूँ। मैं यह कहनेका साहस करूँगा कि यह प्रकृतिका एक मौलिक और निरपवाद नियम है कि हमारी रोजमर्राकी जरूरतोंके लिए वह पर्याप्त चीजें पैदा करती रहती है और यदि हम जितना आवश्यक है, अपने लिए केवल उतना ही लिया करें तो संसारमें दारिद्रय हो ही नहीं, कोई आदमी यहाँ भूखा न मरे। किन्तु जबतक विषमता है तबतक [समझ लीजिए] चोरी चल रही है। मैं समाजवादी नहीं हूँ और जिनके पास जायदाद आदि है, उनसे उसे छीन नहीं लेना चाहता; तथापि में यह अवश्य कहना चाहता हूँ कि जो अँधेरेमें उजाला देखना चाहते हैं उन्हें व्यक्तिगत रूपसे यह नियम मानना चाहिए। मैं किसीका कुछ छीनना नहीं चाहता। वह तो अहिंसाके व्रतसे च्युत होना कहलायेगा। यदि मुझसे किसीके पास ज्यादा है तो हो; किन्तु जहाँतक मेरे जीवनके अनुशासनका सम्बन्ध है मैं निश्चित रूपसे कह सकता हूँ कि मुझे जितनेकी जरूरत है मुझमें उससे कुछ भी ज्यादा रखनेकी हिम्मत नहीं है। भारतमें तीन करोड़ लोगोंको एक वक्त ही खाकर सन्तोष करना पड़ता है। और इसमें भी एक रूखी-सूखी रोटी और एक चुटकी नमकसे ज्यादा कुछ नहीं होता। जबतक तीन करोड़ लोगोंको आजसे बेहतर खाना और कपड़ा नहीं मिलता तबतक आपको और मुझे, सच कहें तो, किसी चीजपर कोई हक नहीं है। हम लोगोंको वस्तु-स्थितिका अधिक ज्ञान है इसलिए हमें अपनी जरूरतोंमें काट-छाँट करनी चाहिए, यहाँ तक कि स्वेच्छासे भूख सहन करनी चाहिए ताकि इन लोगोंको भोजन और कपड़ा मिल सके, उनका पोषण हो सके। इसके बाद इसीके फलस्वरूप ‘असंग्रह’ व्रत आता है।