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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हम कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकेंगे――कुछ भी प्राप्त करनेके अधिकारी नहीं बनेंगे। इसीलिए उन्होंने भारत सेवक समाज[१]नामक महान् संस्थाकी स्थापना की थी और जैसा कि आपको मालूम है उक्त संस्थाकी परिचय पत्रिकामें श्री गोखलेने खूब सोच-विचारकर यह कहा कि हमें देशके राजनैतिक जीवनमें धार्मिकताका समावेश करना है। आप जानते हैं कि वे प्रायः यह भी कहा करते थे कि हमारा औसत चरित्र अनेक यूरोपीय देशोंके औसत चरित्रसे घटकर है। उन्हें मैं गर्वके साथ अपना राजनीतिक गुरु मानता हूँ; मैं नहीं कह सकता कि उनके इस कथनका कोई वास्तविक आधार है या नहीं; तथापि इसमें शक नहीं कि भारतके शिक्षित वर्गकी हदतक इसमें बहुत कुछ सचाई है। हम शिक्षित-वर्गवालोंने प्रमादवश चरित्रकी अवहेलना की हो सो बात नहीं है, हम परिस्थितियोंके शिकार हुए हैं। कुछ भी हो, मैंने जीवनके इस सिद्धान्तको मान लिया है कि यदि हमारे कामोंको धर्मका बल प्राप्त नहीं है तो हम चाहे जितने बड़े हों, हम सच्ची उन्नति नहीं कर सकेंगे। किन्तु आप तत्काल पूछेंगे, धर्म है क्या? मेरा उत्तर होगा, वह धर्म नहीं जो संसारके धर्म-ग्रंथोंको पढ़नेके पश्चात् प्राप्त होता है। वास्तवमें वह धर्म बुद्धि-ग्राह्य नहीं है, हृदय ग्राह्य है। यह हमारे बाहरकी कोई चीज नहीं है, इस तत्त्वको तो हमें अपने अन्तरसे उद्भूत और विकसित करना पड़ेगा। यह सदा हमारे अन्तरमें स्थित है; कुछको इसकी चेतना होती है, कुछको नहीं होती । तथापि वह वहाँ स्थित है।यदि हम कोई काम सही ढंगसे करना चाहते हैं और यदि उसे स्थायी बनाना चाहते हैं तो चाहे बाहरी मददसे, चाहे आन्तरिक विकाससे, किसी भी तरह क्यों न हो, हमें धर्मकी इस मूल प्रवृत्तिको जाग्रत करना ही होगा।

हमारे धर्मशास्त्रोंने जीवन के कुछ ऐसे सिद्धान्त प्रस्तुत किये हैं जिन्हें स्वयं प्रमाणित सत्य मानकर हमें स्वीकार कर ही लेना होगा। शास्त्रोंका कहना है कि इन सिद्धान्तोंके अनुसार आचरण किये बिना धर्मका स्थूल स्वरूप भी नहीं समझा जा सकता। पिछले अनेक वर्षोंसे इन शास्त्रीय अनुशासनोंमें अविचल श्रद्धा रखकर और उनके अनुसार आचरणका प्रयत्न करनेके बाद मुझे यह जरूरी जान पड़ा कि जो लोग मेरे इस विचारसे सहमत हैं उनका संस्था स्थापनार्थ सहयोग प्राप्त करें। हमने आश्रमका सदस्य बननेकी इच्छा करनेवाले व्यक्तिके लिए जो आचार-नियम बनाये हैं, आज मैं उन्हें आपके सामने रखना चाहता हूँ। इन आचार-नियमों में से पहले पाँच यम कहलाते हैं। यमोंमें सर्वप्रथम आता है:

सत्यका व्रत

सत्यका स्वरूप जैसा हम साधारणतया समझते हैं वह उससे भिन्न है। हमने तो समझ रखा है कि यथाशक्ति झूठका सहारा न लेना ही सत्य है। अर्थात् हमारी धारणाका सत्य, वह सत्य नहीं है जिसका पालन ‘ईमानदारी सर्वोत्तम नीति है’ के विचारसे किया जाता हो। इस कहावतमें तो यह छुपा हुआ है कि यदि किसी परि- स्थितिमें ईमानदारी सर्वोत्तम नीति-कौशल न लगे तो हम उससे हट सकते हैं, जबकि सत्यके व्रतका अर्थ तो यह है कि हमें अपना सारा जीवन किसी भी कीमतपर सत्यसे

  1. १. सवेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी।