पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 13.pdf/२५८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२२४
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बूढ़े, नौकर-चाकर और आस-पासके लोग सभी हमारे ज्ञानसे लाभान्वित होते, ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ की तरह किसी बसु या रायके आविष्कार घर-घरकी निधि होते। अभी तो स्थिति यह है कि जहाँतक जनताका सम्बन्ध है, ये आविष्कार विदेशी वैज्ञानिकों द्वारा किये गये आविष्कारों-जैसे ही हैं। यदि ज्ञानकी सभी शाखाओंकी शिक्षा देशी भाषाओं में हुई होती तो मैं यह बात निःसंकोच कह सकता हूँ कि हमारी इन भाषाओंकी आश्चर्यजनक समृद्धि हुई होती। ग्राम-सफाई आदिके प्रश्न कबके हल हो चुके होते। ग्राम पंचायतें एक विशिष्ट रूपसे जीवन्त शक्तियोंके रूपमें काम करती होतीं; और भारत, उसकी जरूरतोंको देखते हुए उसे जैसा स्वराज्य चाहिए, वैसे स्वराज्यका उपभोग करता होता तथा उसे अपनी पवित्र भूमिपर संगठित हत्या-काण्डके दृश्य देखनेकी नदामत न उठानी पड़ती। अब भी बहुत देर नहीं हुई है――बात बन सकती है। और इसमें यदि आप लोग चाहें तो किसी भी अन्य संस्था अथवा संस्थाओंसे अधिक मदद पहुँचा सकते हैं।

अब में स्वदेशीकी अन्तिम शाखाको लूँगा। जनताकी जबरदस्त गरीबीकी जड़में ज्यादातर तो आर्थिक और औद्योगिक जीवनमें हमारा “स्वदेशी” से बुरी तरह विच्छिन्न हो जाना है। यदि बाजारमें देशके बाहरकी एक भी चीज न मँगाई जाती तो भारत में आज घी-दूधकी नदियाँ बहतीं। किन्तु यह हमारे भाग्यमें नहीं था। हमें लोभ था और इंग्लैंडको भी। इंग्लैंड और भारतका सम्बन्ध गलत आधारपर स्थित था। लेकिन आज वह जिस उद्देश्यसे यहाँ रह रहा है, उसके सम्बन्धमें उसे कोई भ्रम नहीं है। उसकी घोषित नीति तो यह है कि भारतको जनताकी धरोहर मानकर उसीकी भलाईके लिए उसका कारोबार चलाना है। यदि यह सच हो तो लंकाशायरको राहसे हट जाना चाहिए। और यदि “स्वदेशी” का सिद्धान्त सही है तो लंकाशायरको उससे कोई हानि नहीं होगी, भले ही प्रारम्भमें उसे कुछ धक्का लगे। मैं स्वदेशीकी कल्पना बदलेके भावसे किये गये बहिष्कारके रूपमें नहीं करता। मैं तो उसे एक ऐसा धार्मिक सिद्धान्त मानता हूँ जिसका पालन हर एकको करना चाहिए। मैं अर्थशास्त्री नहीं, किन्तु मैंने कुछ ग्रन्थ पढ़े हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि इंग्लैंड आसानीसे अपनी जरूरतकी सभी चीजें पैदा करके स्वावलम्बी राष्ट्र बन सकता है। सम्भव है, यह बात बिलकुल हास्यास्पद लगे, और इसके गलत होनेका शायद सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि इंग्लैंड बाहरसे अधिकतम माल मँगानेवाले देशोंमें आता है। किन्तु भारत जबतक अपने हितोंकी रक्षा करने योग्य नहीं हो जाता तबतक लंकाशायर अथवा अन्य किसी देशके लिए उसका जीना गलत है। और वह अपने हितोंकी रक्षा तभी कर सकता है जब वह――अपने प्रयत्नसे या दूसरोंकी मदद लेकर――अपनी आवश्यकताकी सारी वस्तुएँ अपने ही क्षेत्रमें पैदा करे। उसे उस पागलपन-भरी विनाशकारी स्पर्धाके बवंडरमें पड़नेकी न जरूरत है और न उसे उसमें खींचा जाना चाहिए, जो पारस्परिक लड़ाई-झगड़े, ईर्ष्या-द्वेष और अन्य अनेक बुराइयोंको जन्म देती है। किन्तु उसके बड़े-बड़े करोड़पति सेठोंको इस विश्व-व्यापी प्रतिस्पर्धामें पड़ने से रोकेगा कौन? निःसन्देह कानूनसे काम नहीं चलेगा। अलबत्ता, लोकमतका बल और उचित शिक्षा इस दिशामें बहुत कुछ कर सकते हैं। हाथ-करघा उद्योग मरणासन्न है। पिछले साल अपने दौरोंमें मैं जितने बुनकरोंसे मिल सकता था, खास तौरसे मिला। मेरा