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भाषण: मद्रासमें ‘स्वदेशी’ पर

कह रहा हूँ। फिर भी मैं अपने भाषणके इस भागके अन्तमें हिम्मतके साथ यह कहना चाहता हूँ कि इस समय यूरोपमें जो भयानक काण्ड चल रहा है, उससे तो यही प्रकट होता है कि शान्तिके पुत्र, नाजरथके यीशुके सन्देशपर यूरोपमें लगभग किसीने कान नहीं दिया और सम्भव है कि अब उसपर पूर्वसे प्रकाश डालना पड़े।

मैंने धार्मिक बातोंमें आपसे सहायताकी प्रार्थना की है और एक विशिष्ट अर्थ में आप ही यह सहायता दे सकते हैं। किन्तु मैं आपसे राजनीतिक क्षेत्रमें भी सहयोगकी प्रार्थना करता हूँ। मैं यह नहीं मानता कि धर्मका राजनीतिसे कोई वास्ता नहीं है। धर्म-रहित राजनीति शवके समान है, जिसे दफना देना ही उचित है। सच तो यह है कि आप अपने तरीकेसे चुपचाप राजनीतिको काफी प्रभावित करते हैं। और मुझे ऐसा लगता है कि यदि राजनीतिको धर्मसे विच्छिन्न कर देनेका प्रयत्न नहीं किया गया होता, जैसा कि आज भी किया जा रहा है, तो जिस हदतक राजनीतिका पतन हुआ दिखाई पड़ रहा है, वह उस हदतक न गिरती। यह तो कोई नहीं कह सकता कि देशके राजनैतिक जीवनकी हालत अच्छी है। स्वदेशीकी भावनाकी खोज करते हुए मुझे देशकी पुरानी संस्थाएँ, ग्राम पंचायतें आदि बहुत आकृष्ट करती हैं। वास्तवमें भारत एक गणतन्त्र है और यही कारण है कि उसपर आजतक जो प्रहार हुए हैं, उन्हें वह बर्दाश्त कर सका है। राजाओं और नवाबोंने, चाहे वे भारतीय रहे हों या विदेशी, प्रजासे सिर्फ कर ही वसूला है; और इससे अधिक प्रजासे उनका कोई और सम्बन्ध शायद ही रहा हो। और प्रजाने “राजाका अंश राजाको” दे देनेके बाद शेष बातोंमें ज्यादातर अपनी मर्जीके मुताबिक ही काम किया है। वर्ण-व्यवस्थाके विशाल संगठनके द्वारा समाजकी केवल धार्मिक ही नहीं, राजनीतिक आवश्यकताओंकी भी पूर्ति हो जाती थी। गाँवके लोग अपना आन्तरिक काम-काज जाति संगठनके द्वारा चलाते थे और उसीके द्वारा ही शासकोंके अत्याचारोंका मुकाबला करते थे। जिस राष्ट्रने जाति-संगठनके द्वारा अपनी संगठन-शक्तिका ऐसा अच्छा परिचय दिया हो, उसकी अद्भुत संगठन-क्षमतासे इनकार करना सम्भव नहीं। जिसने पिछले वर्ष हरद्वारका कुम्भ मेला देखा हो, वह आसानीसे समझ सकता है कि जो संगठन बिना किसी विशेष प्रयासके सहज ही लाखों तीर्थ-यात्रियोंके खान-पानकी उत्तम व्यवस्था कर सकता है, वह कितना कौशलपूर्ण होगा। और इसपर भी यह कहनेका फैशन चल पड़ा है कि हममें संगठन-शक्ति नहीं है। हाँ, मेरा खयाल है, जो लोग नई परम्पराओंमें पोषित हुए हैं, उनके बारेमें यह बात एक हदतक ठीक है। स्वदेशीकी भावनासे लगभग घातक रूपसे विच्छिन्न हो जानेके कारण हमें भयंकर विघ्न-बाधाओंसे गुजरना पड़ा है। हम शिक्षित वर्गके लोगोंने विदेशी भाषाके माध्यमसे शिक्षा-दीक्षा पाई है। इसलिए जनतापर हमारा असर नहीं हुआ। हम जनताका प्रतिनिधित्व करना तो चाहते हैं, पर कर नहीं पाते। वे अपने अंग्रेज हुक्कामोंको जितना जानते हैं, उससे अधिक हमें भी नहीं जानते। वे न उनसे खुलते हैं, न हमसे। उनकी आकांक्षाएँ हमारी नहीं हैं, और इसलिए दोनोंके बीच दरार है। और इसलिए आप जो देखते हैं वह वास्तव में संगठनकी कमी न होकर प्रतिनिधि (रिप्रेजेंटेटिव) और प्रतिनिधित (रिप्रेजेंटेड) में पारस्परिक सामंजस्यका अभाव है। यदि पिछले पचास वर्षोंमें हमारी शिक्षा-दीक्षा अपनी-अपनी भाषाओंके माध्यमसे हुई होती तो हमारे बड़े-