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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अपनी बातें संक्षेपमें व्यक्त करनेकी ताकीद करके दी थी। किन्तु जब मैं पुनः बोलने खड़ा हुआ, तो मुझे सभा-मंचपर कुछ खलबली-सी दीख पड़ी। मैंने यह भी देखा कि श्रीमती बेसेंट समीप बैठे हुए राजाओंसे कानाफूसी कर रही हैं; वे उनसे यह कह रही थीं कि मैं न तो अपने शब्द वापस ले रहा हूँ और न उनके सम्बन्धमें कोई सफाई पेश कर रहा हूँ। उन्होंने उनसे यह भी कहा कि उन लोगोंका वहाँ बैठे रहना अब ठीक नहीं है।[१] दूसरी चीज जो मेरी निगाहमें आई वह यह थी कि राजा लोग एक-एक करके उठकर चल दिये थे, अध्यक्ष महोदयने भी सभा-मण्डप छोड़ दिया; और मैं अपना भाषण समाप्त न कर पाया।

श्री गांधीसे जब यह पूछा गया कि क्या आप अपने उस दिनके भाषणका कोई अंश वापस लेना चाहते हैं, तब उन्होंने स्पष्ट रूपसे कहा कि मैंने प्रत्येक शब्द भली- भाँति सोच-विचार कर ही कहा था:

इसके अनन्तर श्री गांधीने कहा:

इस बातकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती कि मैं कभी हिंसात्मक तरीकोंका समर्थन करूँगा। मैं [उस सभामें] भाषण देनेको तैयार भी न था। मित्रोंके जोर डालने-पर मुझे बोलना पड़ा था, क्योंकि लोगोंका यह खयाल था कि देशके विद्यार्थी-समाजपर मेरा थोड़ा-बहुत प्रभाव है। मुझसे हिंसात्मक तरीकोंपर अपने विचार व्यक्त करनेको कहा गया; दुर्भाग्यसे कुछ भावुक युवकोंने हिंसाको अपना सिद्धान्त बना रखा है। और नवयुवकोंके इसी ध्येयके कारण हमें अपने सम्मानित अतिथिकी जानकी हिफाजतके लिए असाधारण सावधानियाँ बरते जानेका लज्जाजनक दृश्य देखना पड़ा। मेरे उस व्याख्यानमें शुरूसे आखिर तक कहीं भी हिंसात्मक कृत्योंका समर्थन न था। हाँ, मैंने उन भ्रमित नवयुवकोंकी देशभक्तिकी भावनाकी सराहना जरूर की थी। मैंने तो यह स्पष्ट कर ही दिया था कि हिंसात्मक कार्य और भी अधिक निन्द्य इस कारण है कि आगे चलकर इस कृत्यसे जो क्षति होगी वह कभी पूरी न की जा सकेगी। मेरे पूरे भाषणका उद्देश्य खुद हम लोगोंकी त्रुटियोंका अवलोकन करना तथा यह दिखाना था कि अपनी अनेक कठिनाइयोंके लिए हम स्वयं ही उत्तरदायी हैं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि यदि श्रीमती एनी बेसेंट जल्दबाजीसे भरा और विवेकहीन खलल न डालती तो कुछ भी गड़बड़ी न होती और मेरा पूरा भाषण सुननेवालेके मनमें मेरे अभिप्रायके विषय में किसी प्रकारका सन्देह न रहने पाता।

श्री गांधीसे यह पूछे जानेपर कि क्या यह सच है कि पण्डित मदनमोहन मालवीयन[२] उस घटनाके पश्चात् सभासे क्षमा माँगी थी, उन्होंने कहा:

मालवीयजीने सभामें भाषण अवश्य दिया था, परन्तु उनके भाषणमें मुझे क्षमायाचना प्रतीत नहीं हुई। उन्होंने इतना ही कहा था कि गांधीजी मेरे विशेष आग्रह से

  1. १. न्यू इंडिया, (१०-२-१९१६) में ए० पी० आई० के प्रतिनिधिको दी गई भेंटके इस विवरणके अतिरिक्त श्रीमती बेसेंटका यह वक्तव्य भी छापा गया था: “मैंने राजाओंसे सभा-भवन छोड़कर चले जानेको नहीं कहा था।” देखिए परिशिष्ट १।
  2. २. (१८६१–१९४६); बनारस हिन्दू युनिवर्सिटाके संस्थापक; शाही परिषदके सदस्य; दो बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसके अध्यक्ष चुने गये।