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भाषण: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में

ऐसा मरण ही मेरी सम्मतिमें प्रतिष्ठाका मरण है। बम फेंकनेवाला गुप्त-रूपसे षड्यंत्र करता है। वह बाहर निकलनेसे डरता रहता है और पकड़े जानेपर अपने अयोग्य और अतिरिक्त उत्साहका प्रायश्चित भोगता है। ये लोग कहते हैं कि यदि हम लोग ऐसी कार्रवाइयाँ न करते, यदि हमारे कुछ साथी बहुतोंको बमका निशाना न बनाते तो बंगभंगके सम्बन्धमें ...। (इस स्थानपर श्रीमती बेसेंटने गांधीजीसे भाषण शीघ्र समाप्त करने के लिए कहा।) मि० लॉयन्सकी अध्यक्षतामें बंगालमें भी मैंने यही बात कही[१] थी। मेरा खयाल है कि में जो कुछ कह रहा हूँ वह बिलकुल ठीक है। मुझे अपना भाषण बन्द करनेको कहा जायेगा तो मैं बन्द कर दूँगा। (अध्यक्षको सम्बोधित कर) महाराज, मैं आपकी आज्ञाकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। यदि आपकी समझमें मेरी इन बातोंसे देश और साम्राज्यको हानि पहुँच रही है तो मुझे अवश्य चुप हो जाना चाहिए। (कहिए, कहिएका शोर; अध्यक्षने गांधीजीसे अपना मतलब साफ तौरपर बतलानेको कहा) मैं अपना मतलब स्पष्ट करता हूँ। मैं सिर्फ (फिर गड़बड़) मित्रो, इस गड़बड़से आप रुष्ट न हों। श्रीमती बेसेंटको मेरा चुप हो जाना उचित जान पड़ता है, इसका कारण यह है कि भारतपर उनका बहुत अधिक प्रेम है और वे समझती हैं कि युवकोंके सामने इस प्रकारकी स्पष्ट बातें कहकर मैं अनुचितकाम कर रहा हूँ। पर यदि ऐसा हो तो भी मेरा कहना है कि मुझे भारतको उस अविश्वाससे मुक्त करना है जो राजा और प्रजा, सभीके मनमें उत्पन्न हो गया है। यदि अपने साध्यको प्राप्त करना हो तो परस्परकी प्रीति तथा विश्वासपर स्थापित साम्राज्यसे ही हमारा काम चलेगा और अपने-अपने घरोंमें बैठे-बैठे दायित्व-हीन ढंगसे यही बातें कहनेकी अपेक्षा क्या इस विद्यालयके प्रांगण में खड़े होकर उन्हें खुले तौरपर कहना अधिक अच्छा नहीं है? मेरा तो खयाल है, इन बातोंको पूरी स्पष्टतासे कहना ही अधिक अच्छी बात है। पहले भी मैंने ऐसा ही किया है और उसका परिणाम बड़ा ही उत्तम हुआ है। मैं यह भी जानता हूँ कि आज ऐसी कोई बात नहीं है जिसकी विद्यार्थियोंमें चर्चा न होती हो या जिसे वे न जानते हों। इसीलिए मैंने यह आत्म-निरीक्षण आरम्भ किया है। अपने देशका नाम मुझे बड़ा ही प्यारा है। इसीसे मैंने आप लोगोंके साथ विचार-विनिमयकी इतनी चेष्टा की है और आप लोगोंसे मेरी नम्रतापूर्वक प्रार्थना है कि अराजकताको भारतमें बिलकुल स्थान न मिलने दीजिए। राज्यकर्त्ताओंसे आपको जो-कुछ कहना हो उसे खुलकर साफ शब्दोंमें कह दीजिए, और यदि आपकाक थन उन्हें बुरा लगे तो उसके परिणामस्वरूप जो कष्ट मिलें उन्हें भोगनेके लिए तैयार रहिए। आप उन्हें गालियाँ न दीजिए। जिस सिविल सर्विसपर निन्दाकी बेहद बौछार की जाती है एकबार उसके एक अधिकारीसे मुझे वार्तालाप करनेका अवसर मिला था। इन लोगोंसे मेरा कुछ बहुत हेलमेल नहीं है, तथापि उसकी बातचीतका ढंग प्रशंसनीय था। उसने पूछा――क्या आपका भी ऐसा ही खयाल है कि हम सभी सिविल सर्विसवाले बुरे होते हैं और जिन लोगोंपर शासन करनेके लिए हम यहाँ आते हैं उनपर हम केवल अत्याचार ही करना चाहते हैं? मैंने कहा――“नहीं,

  1. १. देखिए “भाषण: विद्यार्थी भवन, कलकत्ता में”, ३१-३- १९१५।