पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 13.pdf/२५०

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१६
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बाजी लगाकर महाराज जॉर्ज पंचमका सन्देशा आपको लाकर दे दूँ कि वे यह नहीं चाहते। भाइयो, जब कभी मैं सुनता हूँ कि कहीं, फिर वह ब्रिटिश भारतमें हो चाहे हमारे बड़े-बड़े राजाओं और नवाबों द्वारा शासित रजवाड़ोंमें, कोई बड़ा भवन उठाया जा रहा है तो मेरा मन दुखी हो जाता है और मैं सोचने लगता हूँ, “यह पैसा तो किसानोंके पाससे इकट्ठा किया गया पैसा है।” हमारे ७५ प्रतिशतसे भी अधिक लोग किसान हैं; कल श्री हिगिनबॉटमने अपनी प्रवाहमयी वाणीमें कहा, “ये ही वे लोग हैं जो एकके दो दाने करते हैं।” यदि हम इनके परिश्रमकी सारी कमाई दूसरोंको उठाकर ले जाने दें तो कैसे कहा जा सकता है कि स्वराज्यकी कोई भी भावना हमारे मनमें है। हमें आज़ादी किसानके बिना नहीं मिल सकती। आज़ादी वकील और डॉक्टर या सम्पन्न जमींदारोंके वशकी बात नहीं है।

अब अन्तमें उस बातका थोड़ा-सा विवेचन करना मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूँ, जिसने आज दो-तीन दिनोंसे हमारे मनोंको उद्विग्न कर रखा है। श्रीमान् वाइस-रॉयके यहाँके रास्तोंसे निकलनेके समय हम सब लोग बड़ी ही चिन्तामें थे। स्थान-स्थानपर खुफिया पुलिसके लोग नियत थे। हम दंग रह गये। हमारे मनमें बार-बार यह प्रश्न उठता था कि हम लोगोंके प्रति इतने अविश्वासका क्या कारण है? इस प्रकार मरणान्तक-दुःख भोगते हुए जीनेकी अपेक्षा क्या लॉर्ड हार्डिजके लिए सचमुच ही मर जाना अधिक श्रेयस्कर नहीं है! परन्तु एक बलशाली सम्राट्के प्रतिनिधि इस प्रकार मर भी नहीं सकते। मृतककी भाँति जीना ही वे शायद जरूरी समझते होंगे। पर दूसरा प्रश्न यह है कि खुफिया पुलिसका जुआ हमारे सिरपर लादनेका क्या कारण है? हम क्रुद्ध होते हों, बड़बड़ाते हों, हाथ-पैर पटकते हों, या और जो-चाहे-सो करते हों, पर फिर भी यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतमें अराजक दलकी उत्पत्तिका कारण उतावलेपन का नशा है। मैं खुद भी अराजक ही हूँ; पर दूसरे वर्ग का। हमारे यहाँ अराजकोंका एक वर्ग है जिससे यदि मुझे मिलनेका अवसर मिले तो मैं उनसे स्पष्ट कह दूँगा कि “भाइयो! यदि भारतको अपने विजेताओंपर विजय प्राप्त करनी हो तो आपकी अराजकताके लिए यहाँ जगह नहीं है।” यह भीरुताका लक्षण है। यदि आपका ईश्वरपर विश्वास हो और यदि आप उसका भय मानते हों तो फिर आपको किसीसे डरनेका कोई कारण नहीं है; फिर चाहे वे राजा-महाराजा हों, वाइसरॉय हों, खुफिया पुलिस हों अथवा स्वयं सम्राट् हों। अराजकोंके स्वदेश-प्रेमका में बड़ा आदर करता हूँ। वे जो स्वदेशके लिए आनन्दपूर्वक मरनेके लिए प्रस्तुत रहते हैं उनकी में इज्जत करता हूँ। पर मैं उनसे पूछता हूँ कि क्या किसीकी जान लेना प्रतिष्ठाका कार्य है? क्या छुरेसे हत्या करनेके फलस्वरूप जो मृत्यु दंड प्राप्त होता है उसे किसी भी प्रकार गौरवपूर्ण माना जा सकता है? मैं कहता हूँ ‘नहीं’। कोई धर्मग्रन्थ ऐसे उपायका अवलम्बन करनेकी अनुमति नहीं देता।

यदि मुझे इस बातका विश्वास हो जाये कि अंग्रेजोंके रहते हुए इस देशका कदापि उद्धार न होगा――उन्हें यहाँसे निकाल ही देना चाहिए――तो उनसे अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर यहाँसे चलते होनेकी प्रार्थना करनेमें में कभी आगा-पीछा न करूँगा और मुझे विश्वास है कि अपनी इस दृढ़ धारणाके समर्थनमें में मरनेको भी तैयार रहूँगा;