पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 13.pdf/२४३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२०९
महात्मा गोखलेका जीवन-सन्देश

उस प्रश्न पर ध्यान देनेमें उनका खाना-पीना और सोना सब छूट जाता; और बादमें तो वे दिन-रातका फर्क ही भूल गये। ऐसी अनन्य निःस्वार्थ भक्ति कोई धर्मात्मा पुरुष ही कर सकता है।

हिन्दू मुसलमानके सवालके विषयमें भी उनकी दृष्टि केवल धार्मिक ही होती थी। एक बार हिन्दुत्वका दावा करनेवाला एक व्यक्ति साधु-वेशमें उनके पास आया। वह चाहता था कि मुसलमानोंको नीचा माना जाये और हिन्दुओंको बढ़ाया जाये। स्वर्गीय महात्मा गोखले, जब उसकी इस चालमें न फँसे, तब उसने उनपर यह आरोप लगाया कि उनमें हिन्दुत्वका अभिमान नहीं है। महात्मा गोखलेने भौंहें चढ़ाकर हृदय-भेदी स्वरमें उत्तर दिया, “आप जैसा कहते हैं वैसा करनेमें ही यदि हिन्दुत्व हो, तो मैं हिन्दू नहीं हूँ। आप मेरे सामनेसे चले जायें।” यह सुनकर वह तथाकथित संन्यासी इस सच्चे संन्यासीको छोड़कर चला गया।

महात्मा गोखलेमें निर्भयताका गुण बहुत बड़ी मात्रामें था। धर्मनिष्ठामें इस गुणका लगभग प्रथम स्थान है। लेफ्टिनेंट रैंडके[१]खूनके बाद पूनामें भय फैल गया था। उस समय महात्मा गोखले इंग्लैण्ड में थे। उन्होंने पूनाके पक्षमें वहाँ जो भाषण किया, वह जगद्विख्यात है। उसमें कही हुई कुछ बातें बादमें सिद्ध नहीं की जा सकीं। अतः थोड़े समय बाद जब वे भारत लौटे, उन्होंने अंग्रेज सैनिकोंसे, जिनपर उन्होंने आक्षेप किये थे, क्षमा मँगी। क्षमा माँगनेसे भारतके कुछ वर्गोंके लोग नाराज भी हुए। कुछ लोगोंने महात्मा गोखलेको यह सलाह दी कि उन्हें सार्वजनिक क्षेत्रमें काम करना छोड़ देना चाहिए। कुछ अज्ञानी भारतीय उनपर भीरुताका आरोप लगानेमें भी नहीं हिच-किचाये। इन सभीको उन्होंने गम्भीर और मीठी भाषामें एक ही उत्तर दिया, “जो [देशसेवाका] कार्य मैंने किसीकी आज्ञासे अपने हाथमें नहीं लिया, उसे मैं किसीकी आज्ञासे छोड़ भी नहीं सकता। यदि मैं अपना कर्त्तव्य पालन करते हुए लोकमतको अपनी तरफ रख सकूँ तो मैं उसे अच्छा मानूँगा, परन्तु यदि में इतना भाग्यशाली न रहूँ तो उसे भी अच्छा ही मानूँगा।” कार्य करनेको ही उन्होंने अपना धर्म माना था। कार्य करते हुए लोकमतपर उसका क्या असर होगा, इसका विचार उन्होंने कभी स्वार्थदृष्टिसे किया हो ऐसा मुझे अनुभव नहीं हुआ। मेरी ऐसी मान्यता है कि यदि उन्हें देशके लिए सूलीपर चढ़ना पड़ता तो भी उनमें इस कार्यको निडरतापूर्वक और हँसते-हँसते करनेकी शक्ति थी। मैं जानता हूँ कि बहुत बार जिस स्थितिमें से वे गुजरे थे उसमें से गुजरनेके बजाय सूलीपर चढ़ना उनके लिए बहुत आसान था। वे अनेक बार ऐसी विकट स्थितिमें फँसे थे, किन्तु उन्होंने कभी हार नहीं मानी।

इन सारे उदाहरणोंसे सार यह निकलता जान पड़ता है कि यदि इस महान्दे शभक्तके जीवनसे हमें कुछ लेना हो तो उनकी धार्मिक वृत्तिका अनुकरण करना चाहिए। हम सब केन्द्रीय धारासभामें प्रवेश नहीं कर सकते; उसमें प्रवेश करनेसे सदा

 
  1. १. १८९७ में पूनामें प्लेग सम्बन्धी कार्य करते हुए डब्ल्यू० सी० रैंड, आई० सी० एस०, और लेफ्टिनेंट एयर्स्टकी हत्या कर दी गई थी और इस सम्बन्ध में दामोदर हरि चापेकर और उनके भाईको प्राणदण्ड दिया गया था।
१३-१४