पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 13.pdf/२३६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२०२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अन्तमें उन्होंने मानपत्रके साथ चांदीका जो डिब्बा था उसे लेनसे इनकार किया और कहा:

मैं ऐसी कीमती चीजें अपने पास नहीं रखता। किन्तु मैं इसे बेचकर इसके पैसेका किसी परोपकारके काममें प्रयोग करूँगा।[१]

[गुजरातीसे]
गुजरात मित्र अने गुजरात दर्पण, ९-१-१९१६
 

१६०. पत्र: वी० एस० श्रीनिवास शास्त्रीको

अहमदाबाद
जनवरी १३, १९१६

प्रिय श्री शास्त्रियर,

आपने पहलेसे ही मेरे कदमका अनुमान लगा लिया। मैंने कांग्रेस-सप्ताहमें अपना निष्कर्ष आपके समक्ष रखनेकी सम्भावना डॉक्टर देवको बताई थी। परन्तु वह नहीं हो सका। चूँकि सदस्योंने अब उस प्रश्नपर विचार आरम्भ कर दिया है, इसलिए मैं जिस निष्कर्षपर पहुँचा हूँ उसे जाहिर करना शायद आवश्यक नहीं रहा। वे लोग मुझे सदस्य मनोनीत न करके ठीक ही कर रहे हैं। स्वतंत्र रूपसे काम करते रहनेपर हम लोगोंके बीच सहयोगकी सम्भावना है, परन्तु सदस्य बना लिये जानेपर मेरे बाधा बननेकी सम्भावना अधिक जान पड़ती है। अनेक मुद्दोंपर समिति (सवेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी) के काम करनेके तरीकोंमें और मेरी कार्य प्रणालीमें जमीन-आसमानका अन्तर है।

हम लोगोंका, एक ही गुरुका शिष्य होना हमारे बीच कभी न टूटनेवाली मैत्रीका परिचायक है; हाँ, यह बात जरूर है कि हम लोग उनके कार्यको जुदा-जुदा दृष्टिकोण सामने रखकर किया करेंगे।[२]

हृदयसे आपका,
मो० क० गांधी

[अंग्रेजीसे]

लेटर्स ऑफ राइट ऑनरेबल श्री० वी० एस० श्रीनिवास शास्त्री

  1. १. डिम्बा सभास्थलमें ही नीलाम किया गया और वह कोली-जातिकी ओरसे ही १४५ रुपयेमें खरीद लिया गया।
  2. २. गांधीजीने अपनी आत्मकथा में लिखा है, “जब मुझे सदस्य बनानेके सम्बन्ध में समितिके सदस्यों के बीच इतना बड़ा मतभेद पैदा हो गया था, तब मुझे यह साफ नजर आने लगा कि सदस्यता के लिए दिया गया अपना प्रार्थनापत्र वापस माँग लेना और मेरी सदस्यताका विरोध करनेवालोंको नाजुक स्थितिसे बचा लेना मेरे लिए सबसे अधिक ठीक होगा। इसीमें मैंने श्री गोखले तथा समितिके प्रति वफादारी देखी... सदस्थताका प्रार्थना पत्र वापस माँग लेनेके परिणामस्वरूप में सच्चे अर्थ में समितिका सदस्य बन गया।” भाग ५, अध्याय ६।