१५७. भाषण: कठोड़में[१]
जनवरी ४, १९१६
जिन-जिन जगहोंमें सत्याग्रहियोंने जन्म लिया है उन-उन जगहोंको मैं तीर्थ-स्थान मानता हूँ, इसलिए मैं इस स्थानको तीर्थ मानकर ही यहाँ आया हूँ। स्वर्गीय श्री हुसेन दाऊद[२] जैसे लोग देशमें हों तो भारतका बहुत हित-साधन हो सकता है। यदि आप उनके उदाहरणका अनुकरण करेंगे तो आप बहुत कुछ कर सकेंगे। मैं सूरतमें कलेक्टर श्री हडसनसे मिलने गया था। मैंने उनसे कहा कि वे दक्षिण आफ्रिका जाने-वाले लोगोंकी सहायता करें। इसपर श्री हडसनने कहा कि जो लोग झूठ बोलकर झूठे प्रमाणपत्र ले जाना चाहते हैं वे उनकी सहायता कैसे कर सकते हैं। इसलिए मैं आपसे कहता हूँ कि आप ऐसा न करें। दक्षिण आफ्रिकामें जाकर कुछ लड्डू नहीं मिल जायेंगे। भारत में ईमानदारीसे जो-कुछ मिल सके वही प्राप्त करना उचित है। आपने मुझे इस समय जो सम्मान दिया है उसे मैं सार्थक तभी मानूँगा जब मुझे दूसरी बार यहाँ आनेपर ऐसा जान पड़े कि मैंने जो कुछ कहा था आपने उसपर अमल किया है।
गुजरात मित्र अने गुजरात दर्पण, ९-१-१९१६
१५८. भाषण: मोटा वराछामें[३]
जनवरी ४, १९१६
मैं यहाँ अपने एक पुराने मित्रसे मिलनेके लिए आया हूँ। मैंने सभी जगह अपनी यह हार्दिक इच्छा प्रकट की है कि हिन्दुओं और मुसलमानोंको संगठित होना चाहिए। मैं यह आशा करता हूँ कि ये दोनों जातियाँ मेरी सहायता करेंगी। जब मैं बैलगाड़ीमें बेठकर कठोरसे यहाँ आया था तब मुझे जल्दी थी। जल्दी आना था इसलिए मुझे स्वार्थवश बैलोंको पिरानीसे मारना ठीक लगा; किन्तु हिन्दू धर्ममें यह कहा गया है कि गाय और बैलको मारना नहीं चाहिए। इस्लामकी धर्म-पुस्तकमें भी दया-भाव रखनेका विधान है। मुझे लगा कि बैलोंको आर लगी पिरानीसे मारना निर्दयता है। इंग्लैंडमें यह दण्डनीय अपराध है। किन्तु यहाँ इसपर कोई सजा नहीं दी जाती। दोनों जातियोंके धर्मग्रन्थोंका आदेश है कि तुच्छ जीवोंके प्रति भी निर्दयता नहीं बरतनी