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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अशिष्ट व्यवहार भी न करना चाहिए। नम्रतापूर्ण व्यवहार तो नौकरोंसे भी करना चाहिए। हमें सत्यके मार्गपर चलते हुए निर्भय रहना चाहिए। डरपोक स्वयं डरता और दूसरोंको डराता है। यह स्थिति [व्यक्तियोंमें ही नहीं] कुटुम्ब और समाजमें भी देखी जाती है। तब हम सुधार करनेकी आवाज कहाँ उठायें? यदि कोई व्यक्ति अपनी जातिमें सुधार करना चाहता है तो वह दूसरे लोगों के सम्मुख सिर्फ उनकी चर्चा करता है, और कहता है, इन सुधारोंको करनेकी आवश्यकता तो है; किन्तु भाइयो, आप हमारी जातिके लोगोंको तो जानते हैं। वे लोग आसमान सिरपर उठा लेंगे। किन्तु इस प्रकार डरकर बैठ रहना तो हमारे पौरुषकी कमी ही है। अपनी बेटीके दुःखको जितना हम अनुभव करते हैं उतना जातिके लोग नहीं कर सकते। मैं अपनी जातिका व्यवहार जानता हूँ। घर-घर मिट्टीके चूल्हे हैं। सभी जातियोंमें माँ-बाप अपनी लड़कियोंके सम्बन्धमें बहुत भयभीत हैं। इस सम्बन्धमें आवश्यक सुधार करने ही चाहिए। यदि ऐसा नही किया जाता है तो आर्यसमाज जैसी संस्थाओंका क्या अर्थ है? अखा कविने कहा है: “सुतर आवे तेम तू रहे, ने जेमतेम करीने हरीने लहे” हमें जैसे बने अपने कामके माध्यमसे हरिको प्राप्त करना है। हम जबतक आत्माको नहीं चीन्हते, तबतक हरिको प्राप्त नहीं कर सकते। यह देश बोलनेमें सबसे आगे और कर्त्तव्यमें सबसे पीछे है; किन्तु देशपर से यह आक्षेप हटाना जरूरी है। मुझे दक्षिण आफ्रिकामें अनुभव हुआ है कि वक्ता सभा-सम्मेलनोंमें खुलकर जीभका प्रयोग करते थे। वे अपने भाषणोंमें जेल जानेका निश्चय बताते; किन्तु जब कसौटीपर चढ़नेका समय आता तो वे निकल भागते। बोलते वक्त रंग अलग होता है और काम करते वक्त अलग। काम करते वक्त भय आकर हृदयमें पैठ जाता है; इसलिए वे जबतक भयको हृदयसे निकाल नहीं देते तबतक आर्थिक या धार्मिक उन्नति कभी नहीं कर सकते। जब भय निकल जायेगा तभी भारतमें सच्चा जीवन बिताना सम्भव होगा। भारतमें ३० करोड़ लोग रहते हैं। इनमें से कुछ लोग भी आगे आयें तो वे बाकीके लोगोंका नेतृत्व कर सकते हैं। एक खरे सिक्केका मूल्य हजारों खोटे सिक्कोंसे अधिक होता है। इतना कहकर मैं अपना स्थान ग्रहण करनेकी अनुमति चाहता हूँ। मैं यह कहना चाहता हूँ कि मुझे अभी दूसरी जगह जाना है, इसलिए कृपा करके मुझे जानेकी अनुमति दे दें और उत्सवका कार्य जारी रखें।

[गुजरातीसे]

गुजरात मित्र अने गुजरात दर्पण, ९-१-१९१६