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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चर्चा कर चुका हूँ। यदि इसमें कुछ परिवर्तन कर दिया जाये तो मेरे विचारसे यह समाज अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकता है। एक बात तो यह है कि इस समाजके कुछ वक्ता वाद-विवाद करके कार्य-सिद्धिके लिए उत्साह प्राप्त करते हैं। किन्तु यह उद्देश्य वाद-विवादोंमें पड़े बिना भी सिद्ध हो सकता है। मैंने इस सम्बन्धमें हरद्वारमें बातचीत की थी और मैं आज यहाँ भी यही बात कहता हूँ। यह समाज जो कुछ करता है वह हिन्दू धर्मके कार्यसे भिन्न नहीं है। यदि आप देखें तो ब्रह्मसमाज, सिख- सम्प्रदाय, आदि विभिन्न समाजोंमें हिन्दू धर्मके ही तत्त्व समाविष्ट मिलेंगे केवल नामका ही भेद है। जैसे किसी बस्तीकी जन-गणनाकी जाती है तब विभिन्न लोगोंके नामोंकी तालिका बनाई जाती है उसी प्रकार इन संस्थाओंकी गिनती भी सार्वजनिक हितकी ही दृष्टिसे की जाती है। मूल तत्त्वोंकी खोज करें तो पता चलेगा कि किसी भी संस्थाके मूलतत्त्व हिन्दू धर्मके मूल तत्त्वोंसे भिन्न नहीं हैं। इस समय जो चर्चा चल रही है उससे इतना तो जान पड़ता है कि एक समय आयेगा जब समस्त हिन्दू संस्थाएँ हिन्दू धर्मके अन्तर्गत ही मानी जायेंगी। भारतमें हिन्दू, पारसी, मुसलमान आदि विभिन्न धर्म हैं फिर भी जब देश-सेवा करनेका प्रश्न आता है तब सब एकत्र हो जाते हैं। इससे आप देखेंगे कि धर्म-भावना तो सभीमें है। यह याद रखना चाहिए कि धर्म-भावनाके बिना कोई भी बड़ा कार्य नहीं हुआ है और न कभी भविष्य में होगा। अब मुझे यहाँ कुछ विचार प्रकट करने हैं। उन्हें में प्रकट करूंगा। इससे मेरा स्वार्थ भी सधेगा और जो कार्य मुझे करना है वह भी सम्पन्न होगा। मुझे आज भाषणके लिए अभी आधा घंटा और फिर शामको एक घंटा दिया गया है। कुल मिलाकर डेढ़ घंटा हुआ। किन्तु इतने समय तक बोलना और उसे आपके मनपर अंकित करना मेरी शक्तिके बाहर है। मैं यह पसन्द करता हूँ कि भाषणके लिए कमसे-कम समय हो। भाषणोंका मुझे अच्छा अनुभव प्राप्त है। मैं गत ३० वर्षोंसे बहुत भटका हूँ। मैंने देखा है कि जहाँ बहुत अधिक बोला जाता है वहाँ काम बहुत कम किया जाता है। यह आरोप समस्त भारतपर किया जाता रहा है। ऐसा आरोप यूरोपीय अथवा पाश्चात्य लोग करते हैं; हम इस आरोपके योग्य नहीं हैं। इस तरह की आलोचना एक कांग्रेस अधिवेशनमें भी की गई थी कि हम केवल भाषणों और प्रवचनोंसे तृप्त हो जाते हैं। हम इस स्थितिसे कब मुक्त होंगे? हम इस दृष्टिसे अत्यधिक दोषी हैं। और इसी कारण हमारी स्थिति विषम हो गई है। आप जानते हैं, कि भारत में बहुत भूख है और उसकी यह भूख आध्यात्मिक भोजनकी रही है। ऐसे सम्मेलनोंमें दिनके सात या आठ घंटे केवल भाषण सुननेमें ही निकल जायें तो फिर काम कब हो सकता है? हमने अपने जीवनका जितना समय भाषण सुनने में बिताया है यदि उतना ही समय काम करनेमें लगाया होता तो आज भारतमें कितना काम हो चुका होता। हमने जितना समय भाषण सुननेमें गँवाया है उतना समय गणित करनेमें लगाया होता तो मेरा खयाल है कि आज भारत स्वराज्यकी सीढ़ियों-पर पहुँच गया होता। ऐसे सभा-मण्डपोंमें बैठकर भाषण और प्रवचन सुननेसे हमें स्वराज्य कभी नहीं मिलेगा। स्वराज्य तो आत्म-त्याग करने और योग्यता प्राप्त