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१३४. भाषण: अहमदाबाद के समारोह में[१]

नवम्बर २८, १९१५

मैं यह जानता हूँ कि आप सब लोगोंकी प्रसन्नताके इस अवसरपर यदि में आपको पसन्द न आनेवाले विचार प्रकट करूँगा तो आपको दुःख होगा। फिर भी इस सम्बन्धमें अपने विचार मुझे आपको बताने ही चाहिए। एक प्रश्न यह उठता है कि मेरा इस समारोहमें आना उचित भी था या नहीं। और उससे भी बड़ा प्रश्न यह उठता है कि मुझे यहाँ भाषण देना चाहिए या नहीं। मैं यहाँ प्रेम-वश आ गया हूँ और प्रेम-वश ही बोलने खड़ा हुआ हूँ। आप सब लोगोंको बहुत प्रसन्नता हुई है और आप भाई नानालालका सम्मान कर रहे हैं, यह देखकर मुझे भी प्रसन्नता होनी चाहिए।

भाई नानालाल आई० सी० एस० होकर आ गये ... परिश्रमके लिए उन्हें सम्मान देना ठीक है। किन्तु मैं यह नहीं चाहता कि उनके उदाहरणका अनुकरण करके अन्य विद्यार्थी भी उनके समान सनद लेकर नौकर बन जायें। अभी हमारे विद्यार्थियों को सिविलियन बननेके आदर्शकी आवश्यकता नहीं है, बल्कि उस आदर्शकी आवश्यकता है जो श्री दादाभाई, श्री गोखले और श्री फीरोजशाह मेहताने रखा है। यदि मैं स्वर्गीय श्री गो० कृ० गोखलेके शब्दोंमें कहूँ तो अभी तो हमें चरित्र-गठनकी आवश्यकता है, बिल्लोंकी नहीं। भाई नानालालके पिताने ३०,००० रुपये खर्च करके उन्हें सिविलियन बनाया है।

मेरा खयाल है कि वे इस रुपयेका कोई अधिक अच्छा सदुपयोग कर सकते थे; और भाई नानालाल सामान्य साधन-सम्पन्न व्यक्ति रहे होते तो भी किसी अन्य रूपमें भारतकी अच्छी सेवा कर सकते थे। भारतमें सिविलियन तो बहुत आ चुके हैं और आगे भी आयेंगे; किन्तु इन्होंने लोगोंका कोई विशिष्ट हित किया हो, ऐसा नहीं लगता। भोजा भगत[२]मोची था, फिर भी उसने अपना धन्धा करते हुए ही अच्छी उन्नति की थी। इसी प्रकार अखा भगत[३]सुनार था; फिर भी उसने अपना काम करते हुए अपनी उन्नति की थी। कोई भी मनुष्य इसी प्रकार चाहे तो अपने धन्धेमें रहकर आत्मोत्थान कर सकता है। भाई नानालाल भी यदि अपना धन्धा करते हुए देश-सेवामें लग जाते तो वे देशका अधिक हित-साधन कर सकते थे। आपको बिल्लोंसे मोह है; इसलिए आपको लगता है कि बिल्ले लगाना बहुत बड़ी बात है। किन्तु मैं मानता हूँ कि बिल्लोंसे मनुष्यताका महत्त्व कम हो जाता है, मनुष्य स्वयं सत्त्वहीन हो जाता है। हमें अब बी० ए०, एम० ए०, बेरोनेट, के० सी० एस० आई०, सी० आई० ई०, सर,

  1. १. श्री एन० सी० मेहता, जो भारतीय सिविल सर्विसमें ले लिये गये थे, के सम्मानमें।
  2. २. एक गुजराती कवि (१७८५- १८५०)।
  3. ३. सत्रहवीं शताब्दीके अध्यात्मवादी कवि, जिनकी रचनाओंमें व्यंग्य,वेदान्त और बुद्धिवादका पर्याप्त पुट है।