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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इससे बड़े भवन हैं। इसलिए मेरा निवेदन यह है कि अहमदाबादके लोग सर फीरोजशाहकी स्मृतिमें एक बड़ा भवन बनाएँ। सर फीरोजशाहके ठाठ-बाठको समझना भी आवश्यक है। भारतीय व्यवस्थापिका सभाके सदस्यके रूपमें उन्हें जो वेतन मिलता था उसे तो वे कलकत्तेमें ही खर्च कर डालते थे। खर्च करनेमें उनका हाथ बहुत खुला हुआ था; श्री गोखले और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर[१] आदिका जीवन-सिद्धान्त एक था और सर फीरोजशाहका दूसरा; किन्तु वह था निर्दोष। ऐसे महान् व्यक्तिका स्मारक अहमदाबादमें स्थापित किया जाना चाहिए। मुझे आशा है कि अहमदाबादके लोग मेरी इस मांगका समर्थन करेंगे।

[गुजरातीसे]
प्रजाबन्धु, २१-११-१९१५
 

१३२. भाषण: अहमदाबादमें राजचन्द्र-जयन्ती के अवसरपर

नवम्बर २१, १९१५

गुजरातके ख्यातनामा दार्शनिक श्रीमद् राजचन्द्रकी[२] जन्म-वार्षिकी मनानेके लिए अहमदाबादके प्रेमाभाई हॉलमें २१ नवम्बर, १९१५ को आयोजित सभाके अध्यक्ष, गांधीजीने अपने भाषणके प्रारम्भमें महान दार्शनिककी जन्म-वार्षिकी मनानेके औचित्यपर प्रकाश डाला।

श्री गांधीने श्रीमद् राजचन्द्र के जीवनपर प्रकाश डालते हुए कहा कि उन्हें उनके व्यक्तिगत सम्पर्क में आनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उन्होंने कहा कि अपनी समझ के मुताबिक तो मेरी पक्की राय यह है कि मृतात्मा भारतमें आधुनिक कालके सर्वोत्तम धार्मिक दार्शनिक थे।[३] सत्य-दर्शनमें वे अपना सानी नहीं रखते, आसक्तिका उनमें लेश भी नहीं था और उनका वैराग्य वास्तविक था। वे किसी भी संकीर्ण मतको नहीं मानते थे। वे समस्त विश्वको अपना घर मानते थे और संसारके किसी भी धर्मपर उनको आपत्ति नहीं थी। पश्चिममें टॉल्स्टॉय और रस्किन दो सबसे बड़े दार्शनिक हुए हैं, और मैं बिना किसी हिचकके कह सकता हूँ कि मृतात्मा उन दोनोंसे बड़े थे।

  1. १. (१८२०-१८९१) बंगालके प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री और समाज-सुधारक।
  2. २. आप गांधीजीके जीवनभरके मित्र और समर्थक, डॉ० प्राणजीवन मेहताके बड़े भाई श्री रेवाशंकर जगमोहन मेहताके दामाद थे। गांधीजी, डॉ० मेहताके कहनेपर, उनसे सबसे पहले १८९१ में मिले थे। उन दिनों वे एक व्यवसायी और कुशल जौहरीके रूपमें, कर्मयोगकी भावनासे, जीवन-यापन कर रहे थे.। गांधीजीके परिपक्व मस्तिष्कपर सबसे पहले उनका ही प्रभाव पड़ा था, उतना ही गहरा जितना कि बादमें रस्किन और टॉल्स्टॉयका पड़ा (देखिए आत्मकथा भाग २, अध्याय १, नवजीवन प्रकाशन मन्दिर, अहमदाबाद)।
  3. ३. यह वाक्य गुजराती, २८-११-१९१५ से लिया गया है, जिसमें कहा गया है उनमें ज्ञान-वैराग्य और भक्ति, तीनों थीं।