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११९. पत्र: नारणदास गांधीको

भाद्रपद सुदी ७, [सितम्बर १६, १९१५]

चि० नारणदास,

तुम समयपर आ जाओगे, यही सोचकर पत्र नहीं लिखा। तुम्हारे लिए दीर्घ जीवनकी कामना करूँ तो व्यर्थ है। तुम्हें इस जीवनमें आत्मदर्शन हो, यह कामना करता हूँ। उसके लिए तुम जो प्रयत्न कर रहे हो उसमें तुम्हें सफलता मिले; इसके लिए मेरे आशीर्वाद और मेरी मदद तुम्हें प्राप्त रहेगी।

तुम यहाँ बड़े कठिन समयमें आ रहे हो। ऐसे अवसरपर ही मैं तुम्हारी उपस्थिति चाहता था। मैं मानता हूँ कि तुम कठिनाईकी बात सुनकर घबराओगे नहीं। पत्नीकी ओरसे क्लेश हो तो वह तो दृढ़ रहनेसे ही दूर होगा। पत्नी या पति किसीको भी एक दूसरेके सद्-उत्साहको रोकनेका अधिकार नहीं है। जो प्रसंग आया है उसमें मैं बाह्यतः दुःख अनुभव करता हूँ; किन्तु आन्तरिक सुखका पार नहीं है। मुझे ऐसा लगता है कि भारतमें मेरा जीवन अब जाकर आरम्भ हुआ है।

मोहनदासके आशीर्वाद

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ५६७८) से।

सौजन्य: नारणदास गांधी

१२०. पत्र: वी० एस० श्रीनिवास शास्त्रीको

अहमदाबाद
सितम्बर २३, [१९१५][१]

प्रिय श्री शास्त्रियर,

जब मैंने नायकरको आश्रममें लिया तब तो मेरी पत्नीने रोष प्रकट नहीं किया था। फिर मेरे सामने यह सवाल आया कि मैं आश्रममें एक वयस्क गुजराती ढेड़ और उसकी पत्नीको लूँ या न लूँ।[२] मैंने उसे आश्रममें लेनेका निश्चय किया और मेरी पत्नीने इसकी मुखालिफत की। आश्रमकी एक अन्य महिलान उसका साथ दिया। आश्रम में खासी खलबली मच गई। अहमदाबादमें भी काफी खलबली मची हुई है। मैंने अपनी

  1. नायकर, जिनका पत्रमें उल्लेख है, गांधीजीके साथ १९१५ में रहने लगे थे।
  2. यहाँ श्री दूदाभाईका उल्लेख किया गया है। ये आश्रम में प्रविष्ट होनेवाले पहले “अछूत” थे और २६ सितम्बरको सपरिवार वहाँ आये थे, देखिए, “डायरी: १९१५”। गांधीजीने उन्हें अमृतलाल ठक्करके सुझावपर प्रविष्ट किया था। इस घटनासे अहमदाबादके सामाजिक और धार्मिक जीवनमें एक खलबली पैदा हुई और लोगोंने आश्रमका बहिष्कार तक करनेका विचार किया।
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