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९५. पत्र: रणछोड़लाल पटवारीको

अहमदाबाद,

वैशाख बदी १३ [ जून १०, १९१५]

आदरणीय श्री रणछोड़भाई,

कल बहुतसे कार्योंमें व्यस्त रहते हुए आपको पत्र लिखा था। मुझे लगता है कि कुछ बातोंका उत्तर मुझे अभी दे देना चाहिए। आज अभी कुछ फुरसत है और फिर शामकी गाड़ीसे पूना जा रहा हूँ; इसलिए कुछ जानकारी तो इसी समय लिखे देता हूँ।

कैसरे हिन्द पदक मिलनेपर बधाई की क्या बात है। इसका दिया और ले लिया जाना बड़ी बात नहीं है। मुझे तो दूसरे ही ढंगका पदक लेना है, देखें वह कब मिलता है।

जो चीज विलायती आटा कहकर बेची जाती है वह प्राय: आटा नहीं होती, बल्कि दूसरी कई वस्तुओंका मेल होती है। उस आटेमें बहुत धोखाघड़ी है। संभव है फुटकर विक्रेताका इससे कोई सम्बन्ध नहीं हो। हाथ-करघेपर बने कपड़ेकी बात तो एक उदाहरण-भर है। स्वदेशी व्रत लेनेपर सब वस्तुएँ स्वदेशी ही काममें लेनी चाहिए। में यह कहनेकी अनुमति चाहता हूँ कि इस व्रतके पालनमें सुख अनुभव करना ही धर्म है।

अंक-गणितमें हिसाब लगाना और वही-खाता रखना भी अवश्य होगा।

यह बात नहीं है कि गुजराती गुजरातके बाहर जायेंगे ही नहीं। वे तो सारे देशमें घूमेंगे। उन्हें देशकी सेवा करनी है। यदि उन्हें मद्रासी न आयेगी तो वे मद्रासके लोगोंके साथ सम्बन्ध नहीं रख सकेंगे। अंग्रेजी भी केवल अंग्रेजी जाननेवालोंके ही कामकी है। शंकरने भारतकी सब भाषाओंका अध्ययन किया था । वल्लभने जो द्रविड़ देशवासी थे, गुजराती सीखी थी। इस समय मद्रासमें सैकड़ों गुजराती हैं जो तमिल जानते हैं। यूरोपकी विभिन्न जातियोंके लोग चार-पाँच यूरोपीय भाषाएँ जानते हैं। भाषाओंका यह ज्ञान प्राप्त करना बहुत आसान है। अंग्रेजी पढ़नेमें जो व्यर्थ समय जाता है, उसे बचा लें तो वह समय इन भाषाओंके अध्ययनके लिए पर्याप्त है।

शिक्षण ऐसा दिया जाये कि विद्यार्थी शिक्षणक्रम पूरा करनेके बाद देशसेवाका ही काम करे। बड़े होनेपर यदि विद्यार्थी आश्रम छोड़कर चले जाते हैं तो यह शिक्षणकी कमी समझी जायेगी। अवसर आनेपर विद्यार्थीको जानेमें स्वतन्त्रता है। किन्तु हम यह नहीं चाहते कि वे मां-बापके पास जाकर सामान्य लोकजीवनके सागरमें डूब जायें।

१. यह “ पत्र : रणछोइलाल पटवारीको ”, ९-६-१९१५ को लिखे गये पत्रके दूसरे दिन लिखा गया था।

२. गांधीजीको यह पदक पूनामें २६ जूनको दिया गया था।

३. शंकराचार्य, आठवीं शताब्दीके एक दार्शनिक।

४. वल्लभाचार्य, पन्द्रहवीं शताब्दीके एक दार्शनिक।