वैशाख बदी ७
[जून ४, १९१५]
चि० मगनलाल,
तुम्हारा पत्र मिल गया है। देखता हूँ कि तुम्हारे मनमें उथल-पुथल मची हुई है। मुझे लगता है कि दोष मेरा ही है। मैं एक साथ कई घोड़ोंकी सवारी किये हूँ, इसलिए अब सबपर से गिर जानेका भय है। अभी बिलकुल गिरा नहीं हूँ क्योंकि मुझमें उत्साह है और तीव्र सेवाभाव भी है। किन्तु यदि मैं सेवा छोड़कर सारे काम इसी प्रकार चलाता रहूँ तो सम्भव है, बहुत दिन कुछ-भी न चल सके। परन्तु तुम धीरज मत छोड़ना । मैं तुम सबको उचित अवसर आने पर स्वतन्त्र अनुभव प्राप्त करनेके लिए भिन्न-भिन्न स्थानों में भेजना चाहता हूँ। यह सब इसपर निर्भर है कि हमें सहायता कितनी मिलती है और हम अपने साथ कितने लोगोंको ले पाते हैं। मुझे इतनी तो आशा है कि मैं तुम सबकी आकांक्षाओं की पूर्ति कर सकूँगा और इस बीचमें यह भी निश्चित रूपसे जानता हूँ कि तुम सबने अबतक जिस प्रकारका जीवन बिताया है वह व्यर्थ नहीं गया है, इतना ही नहीं, बल्कि तुमने बहुत कुछ सीखा है।
मैं जानता हूँ कि तुमने पूर्ण अनासक्तिको प्राप्त नहीं कर लिया है। मैं स्वयं उस स्थिति तक नहीं पहुँचा हूँ और जानता हूँ कि तुम इस स्थितिसे भी नीचे हो । यदि हम व्रतों आदिका ढोल न पीटें तो जैसी दुर्दशा होती है वैसी न होगी। अब एक प्रश्न पूछता हूँ । क्या तुम विरक्तिकी स्थिति तक पहुँचनेका अर्थ मुझे समझा सकते हो ? मैं समझा सकता हूँ; जैसे मैं ब्रह्मचर्यका पालन करता हूँ, किन्तु सूक्ष्म रीतिसे नहीं। मैं यह नहीं कह सकता कि मेरी दृष्टिमें या मेरे मनमें कभी विकार नहीं आता।
२. मैं सत्यका पालन करता हूँ; किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि मुझसे जाने- अनजाने कभी अतिशयोक्ति नहीं होती। मुझे जो अच्छा लगे वह कहूँ और जो अच्छा न लगे वह न कहूँ, इससे भी सत्य-व्रतके पालनमें दोष आता है।
३. स्वादको जीतनेका अथक प्रयत्न करता हूँ, फिर भी मुझे लगता है कि इन पाँच चीजोंको मैं बहुत स्वादसे खाता हूँ। किन्तु इस व्रतका और अन्य व्रतोंका पालन करते हुए उनमें दिन-प्रतिदिन और दृढ़ हो सकनेमें मेरा अटल विश्वास है। और मेरा इनके स्थूल पालनसे विचलित होना सम्भव नहीं है।'
गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ५६८५) से।
सौजन्य : राधाबेन चौधरी
१. यह पत्र अपूर्ण है।