आश्रमके तीन विभाग होंगे.... व्यवस्थापक, उम्मीदवार और विद्यार्थी.
व्यवस्थापकोंके विचारसे देश-सेवाकी शिक्षा प्राप्त करनेके लिए निम्नलिखित व्रतों और नियमोंका पालन करना आवश्यक है; और कुछ समयसे वे उनके पालनका प्रयत्न करते आ रहे हैं।
साधारण रीतिसे झूठ न बोलना ही इस व्रतका पालन करनेवालेके लिए काफी नहीं है। उसे यह समझ लेना है कि देश-हितकी नीयतसे भी किसीको धोखा नहीं दिया जा सकता । सत्यके लिए माता-पिता आदि गुरुजनोंके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, यह जानने के लिए उसे भक्त प्रह्लादके उदाहरणपर विचार करना चाहिए।
पशुओं और अन्य जीवोंकी हत्या न करना ही पर्याप्त नहीं है । इस व्रतका पालन करनेवालेको जानना चाहिए कि जो उसकी समझमें अन्यायी है उनकी भी हत्या नहीं की जा सकती। वह उनपर भी क्रोध न करे, दया करे । अर्थात् माता-पिता, सरकार अथवा कोई अन्य उसपर अत्याचार करे तो वह उसके अत्याचारका प्रतिकार करे; परन्तु उसे न तो मारे और न चोट पहुँचाये। सत्य और अहिंसाका पालन करनेवाले पर जब अत्याचार किया जाये तब सत्याग्रही बनकर दयाभावसे अत्याचारीको जीत ले । वह अत्याचारके अधीन न हो और जबतक अत्याचारीको जीत न ले तबतक स्वयं कष्ट झेलने और मृत्यु-दण्ड तक भोगनेको तैयार रहे।
जबतक ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन नहीं किया जाता तबतक पूर्वोक्त व्रतोंका पालन प्रायः असम्भव है। इस व्रतमें पर-स्त्रीपर कुदृष्टि न डालना ही पर्याप्त नहीं है। मनमें भी विषय-विकार न आना चाहिए। इस व्रतका पालन करनेवाला यदि विवाहित हो तो अपनी स्त्रीसे भी कामाचरण न करे, बल्कि उसे मित्र मानकर उसके साथ विशुद्ध सम्बन्ध रखे।
जीभ वशमें न हो तो पूर्वोक्त सब व्रत और विशेषकर ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन करना कठिन है। इसलिए इसे एक स्वतन्त्र व्रत समझकर और यह जानकर कि भोजनकी आवश्यकता केवल शरीरके निर्वाहके लिए है, देश-सेवाकी इच्छा रखनेवाला व्यक्ति क्रमशः अपना आहार शुद्ध और निर्दोष बनाता जाये । विकार उत्पन्न करनेवाले सब पदार्थोंको वह एकदम या यथाशक्ति धीरे-धीरे त्याग दे।
स्थूल दृष्टिसे हम जिसे दूसरेकी वस्तु समझते हों उसको न चुराना ही इस व्रतके व्रतीके लिए पर्याप्त नहीं है। बल्कि प्रकृति सदा मनुष्यकी आवश्यकता-भरके लिए आहार