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बंगलौरके नागरिकोंसे साथ वार्तालाप

और अधिक सेवाका अर्थ है सरकारको ही अधिक लाभ। सत्याग्रह एक जबर्दस्त आत्र- मणशील शक्ति है। मन तो स्वभावतः चंचल है; उसमें प्रत्येक प्रकारके विचारके लिए स्थान है।

तीन दोष

धन, भूमि और स्त्री बुराईका घर हैं। बुराईका परिहार होना चाहिए। मुझे अपने सुखके लिए भूमि, स्त्री या धनकी आवश्यकता नहीं है। दूसरोंकी बुद्धि भ्रष्ट है इसीलिए में भी वैसा क्यों हो जाऊँ ? यदि आदशोंके अनुरूप आचरण किया जाये तो दोष-पूर्ण कार्य- कलापोंकी गुंजाइश बहुत कम बच रहे । सार्वजनिक जीवनको ढालनेकी आवश्यकता है।

भारतमें साधु

हर नदी अपना प्रवाह बदलती है। यहाँ पन्द्रह लाख साधु हैं और यदि प्रत्येक साधु अपने कर्त्तव्यका पालन करे तो भारतका बहुत-कुछ हित हो सकता है ।जगद्गुरु शंकरा- चार्य अब 'जगद्गुरु' कहलानेके योग्य नहीं हैं, क्योंकि अब उनमें शक्ति नहीं बची।

भारतीय आदर्श

विद्वेषपूर्ण भौतिक गतिविधि अच्छी नहीं होती। उससे ऐश-आरामकी चीजोंकी ही वृद्धि होती है। भारतीय संस्थाओंपर, जिन्हें फिरसे हिन्दू-धर्मके आदर्शोंके अनुसार ढालना होगा, आधुनिक उद्योगों और कार्योंका अत्यधिक भार नहीं डाला जाना चाहिए । पुण्य या सत्कार्यको जितना अधिक महत्त्व भारतवर्षमें दिया जाता है उतना विदेशोंमें और कहीं नहीं। दूसरे देशोंके लोग दशरथको मूर्ख समझते हैं; क्योंकि उन्होंने अपनी स्त्रीको दिये वचनका पालन किया। पर भारतीय मानते हैं कि 'प्राण जाहि पर वचन न जाई' । यह एक बड़ी बात है। भौतिक क्रिया-कलाप दोषोत्पादक है । अन्तमें विजय सत्यकी होती है।

प्रवासी

देशके लोगोंका दूसरे देशमें जा बसना मातृभूमिके लिए लाभदायी नहीं होता। प्रवासी किसी प्रकारकी नैतिक उन्नति करके नहीं लौटते। यह सब हिन्दू धर्मके विरुद्ध है। [विदेशोंमें] न मन्दिर बन पाते हैं, न वहाँ उत्सवों और त्यौहारोंको मनानेका अवसर मिलता है। वहाँ हमारे धार्मिक-पुरुष पुरोहित आदि भी नहीं जाते और जो जाते हैं वे अधिकांश काठके पुतले होते हैं। प्रवासी काफी प्रपंच करते हैं और उससे समाजमें भ्रष्टा- चार फैलता है। यह साहसपूर्ण उद्योग-धन्धा भी नहीं कहला सकता । सम्भव है, वे वहाँ आसानीसे अधिक पैसा कमा लें; किन्तु इसका अर्थ तो यह हुआ कि वे परिश्रम करके और ईमानदार बने रहकर धनोपार्जन नहीं करना चाहते । प्रवासी अपेक्षाकृत सुखी भी अधिक नहीं होते और उनकी भौतिक आवश्यकताएँ भी बढ़ जाती हैं।

थियोसॉफिकल सोसाइटी

थियोसॉफिकल सोसाइटीके सम्बन्धमें प्रश्न किये जानेपर श्री गांधीने कहा:

व्यक्तियों को छोड़ दीजिए, थियोसॉफिकल सोसाइटीमें बहुत-सी अच्छी बातें हैं! उसने नये विचारों और भावोंको गति दी है।

[अंग्रेजीसे]

न्यू इंडिया, १०-५-१९१५