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आरोग्यके सम्बन्धमें सामान्य ज्ञान [-१७]


ईश्वरकी सहायतासे पालन कर सकूँगा, ऐसी आशा करता हूँ। इसके द्वारा मुझे जो मानसिक और शारीरिक लाभ हुए है उन्हें मैं ही जानता हूँ। बचपनमें ही मेरा विवाह हो चुका था। उसी उम्र में अन्धा बन चुका था। बचपनमें ही सन्तान हो चुकी थीं और तब कई वर्षोंके बाद आँखें खुलीं। और जागृत होकर जब देखा तो अपनेको घमासान संघर्षके बीच पाया। अतः यदि लोग मेरे अनुभवके आधारपर जागृत हो सकेंगे और अपनेको बचा सकेंगे, तो इस प्रकरणको लिखकर मैं अपनेको कृतार्थ हुआ, समझूंगा। अनेक लोग कहते हैं कि मुझमें बड़ा उत्साह है और मैं मानता भी हूँ। मेरे मनको लोग निर्बल नहीं मानते। कई लोग तो मुझे हठधर्मी भी कहते हैं। वैसे मेरे शरीर और मनमें अनेक रोग रहे हैं। लेकिन जो लोग मेरे सम्पर्कमें आये हैं, उनकी अपेक्षा में अधिक स्वस्थ माना जाता हूँ। मैं अपनी यह हालत लगभग २० वर्ष तक -- या कुछ अधिक ही- विषयोपभोगमें लिप्त रहनेके बाद हासिल कर सका हूँ। यदि इन २० वर्षोंको भी बचा सका होता, तो आज मेरी स्थिति क्या होती, यह बात भी त्रैराशिक द्वारा ही जानने योग्य है। मेरी खुदकी मान्यता तो यह है कि वैसा होता, तो आज मेरे उत्साहका पार ही न रहता और मैं जनताकी सेवामें और अपने स्वार्थमें भी ऐसा कुछ उत्साह प्रदर्शित कर सकता कि यदि कोई उसकी होड़में उतरता, तो उसकी परीक्षा ही हो जाती। मेरे इस खण्डित उदाहरणसे भी इतना सार निकल सकता है, तब फिर जिन लोगोंने अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रतका पालन किया है, उनके शारीरिक, मानसिक और नैतिक बलका अन्दाज तो वे ही लगा सकते हैं जिन्होंने उन्हें देखा है। उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।

इस प्रकरणके पाठक इतना तो समझ ही सके होंगे कि जब विवाहितको भी ब्रह्मचर्य पालनकी सलाह दी जा रही है और विधुर पुरुषोंको विशुद्ध विधुर-जीवनका पालन करनेकी सलाह दी गई है, तब फिर अन्य पुरुष या स्त्रीके लिए अन्यत्र कहीं भी विषयोपभोग करनेकी गुंजाइश तो हो ही नहीं सकती। पराई स्त्री अथवा विषयपर कुदृष्टि डालनेसे जो घोर परिणाम हो सकते हैं, उनका विचार स्वास्थ्यके इस प्रकरणमें नहीं किया जा सकता। वह तो धर्मका या गहरी नीतिका ही विषय हो सकता है। यहाँ तो इतनाभर कह सकता हूँ, परनारी और वेश्यागामी पुरुष उपदंश आदि अनेक ऐसे घृणित रोगोंसे पीड़ित और सड़ते हुए देखे जाते हैं जिनका नाम लेना भी अनुचित होगा। प्रकृतिकी यह बड़ी कृपा है कि वह ऐसे स्त्री-पुरुषोंपर शीघ्र ही वार कर देती है। इतना होते हुए भी इन लोगोंकी आँखें नहीं खुलतीं और वे अपने रोगोंकी दवाकी खोज में डॉक्टरोंके पीछे मारे-मारे फिरते हैं। परनारी-गमन न हो तो ५० प्रतिशत वैद्य और डॉक्टर बेकार हो जायें। इन रोगोंने मनुष्य जातिको ऐसा-कुछ जकड़ रखा है कि विचारशील डॉक्टरोंका मत है कि उनकी अनेक खोजोंके बाद भी यदि परनारी-गमनका यह घृणित व्यापार चलता रहा, तो मानव-जातिका अन्त बहुत शीघ्र हो जायगा। इसके फलस्वरूप होनेवाले रोगोंकी दवाएँ ऐसी कुछ जहरीली होती है कि उनसे यद्यपि यह लगता है कि रोग नष्ट हो रहा है, किन्तु दूसरे कई रोग शरीरमें घर कर लेते हैं और उनका परिणाम पीढ़ी-दर-पीढ़ी भुगतना पड़ता है।

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