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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


कोई ईश्वर तो है नहीं। जिसने इस पृथ्वीको बनाया है, वही इसकी सार-सँभाल करेगा। दूसरे लोग ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं या नहीं, यह सवाल तो हमें करना ही नहीं चाहिए। व्यापार, वकालत आदि धन्धोंमें प्रवेश करते समय' तो हम यह विचार कभी नहीं करते कि सभी लोग यदि वकील या व्यापारी बन जायेंगे, तो कैसे चलेगा। अन्तमें, जो-कोई ब्रह्मचर्यका पालन करेगा, उस स्त्री या पुरुषको उचित समयपर इन दोनों प्रश्नोंका जवाब मिल जायेगा। मतलब यह कि उन्हें उन्हींके-जैसे बहुतसे अन्य लोग भी मिलेंगे और सभी लोगोंके ब्रह्मचर्यका पालन करने पर इस पृथ्वीका क्या होगा, यह बात भी वे दिनकी तरह साफ-साफ देख सकेंगे।

लेकिन उपर्युक्त विचारोंको संसारके जंजाल में फंसे हुए लोग अमल में कैसे लायें? विवाहित लोग क्या करें ? जिनके बच्चे हैं, वे क्या करें? जो लोग, काम-वासनाको वशमें नहीं कर सकते, वे क्या करें? हमने यह तो देख लिया कि उत्तमसे-उत्तम बात क्या है। अब हमें चाहिए कि उस आदर्शको हम अपने सामने रखें और उसका हूबहू या कुछ कम अनुसरण करें। जब हम किसी बालक को अक्षर लिखवाते है, तब सुन्दरसे-सुन्दर अक्षरोंका नमूना उसके सामने रखते हैं और वह बालक उस नमूनेके आधारपर अपनी शक्ति-भर उसकी पूरी या अधूरी नकल करता है। इसी प्रकार हम भी अखण्ड ब्रह्मचर्यका आदर्श अपने सामने रखें, तब हमारे लिए उसके अनुरूप प्रयत्न करना सम्भव हो सकेगा। विवाहित हैं तो क्या हुआ? प्रकृतिका नियम तो यह है कि जब स्त्री या पुरुषको प्रजोत्पत्तिकी इच्छा हो, तभी वे ब्रह्मचर्यका व्रत तोड़ें। इस प्रकार कोई दम्पति विवेकपूर्वक वर्षमें या चार-पाँच वर्ष में अपने व्रतसे स्खलित हों, तो वे कुछ पागल नहीं माने जायेंगे और उनके पास वीर्यरूपी धरोहर अच्छे परिमाणमें संचित रहेगी। जो केवल प्रजोत्पत्तिके लिए कामोपभोग करते हों, ऐसे स्त्री-पुरुष क्वचित् ही दिखाई पड़ते हैं। बाकी हजारों लोग तो भोग-विलासके ही आकांक्षी हैं। वे तो यही चाहते हैं और तदनुसार करते हैं। परिणाम यह होता है कि जो सन्तान उत्पन्न होती है, वह उनकी इच्छानुसार नहीं होती। विषयोपभोग करते समय' हम लोग इतने मदान्ध हो जाते हैं कि अपने सहयोगीका विचार भी नहीं करते। इसमें स्त्रीको अपेक्षा पुरुष ज्यादा गुनहगार है। अपने पागलपनमें उसे इतना भी खयाल नहीं रहता कि उसकी स्त्री निर्बल है और प्रजोत्पत्तिका भार उठानेकी, सन्तानके लालन-पालनकी, उसमें यथोचित शक्ति है या नहीं। पश्चिमके लोगोंने तो इस दिशामें हद ही कर दी है। वे लोग तो अपने भोग-विलासके लिए और होने वाली सन्तानके बोझसे अपने सिरको बचाने के लिए अनेक प्रकारके उपचार करते हैं। इन उपचारोंके सम्बन्धम ग्रन्थ लिखे गये हैं और पश्चिममें इस बातका प्रतिपादन करनेवाले पेशेवर लोग भी मौजूद हैं जो यह बतलाते हैं कि विषयोपभोग करते हुए भी प्रजोत्पत्ति किस प्रकार नहीं हो सकती। गनीमत है कि ऐसे पापसे अभीतक तो हम लोग मुक्त हैं। परन्तु हम लोग अपनी स्त्रियोंपर इस प्रकार बोझ लादते हुए जरा विचार नहीं करते और इस बातकी परवाह भी नहीं करते कि हमारी सन्तान निर्बल, वीर्यहीन, स्त्रैण और बुद्धिहीन होती जा रही है। जब-जब सन्तान उत्पन्न होती है, हम कुछ ईश्वर