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पत्र: गो० कृ० गोखलेको


सिर खुला रखें तो लाभ होगा। बालोंको बढ़ाना और पट्टे निकालना, यह तो पागलपन जाहिर करता है। और यदि फोड़े-फुंसियाँ हो जायें, तो उसके कारण उनकी सार-सँभाल करने में भी अड़चन पड़ती है। पगड़ी पहननेवाला भी अपने सिरके बालोंको अन्य लोगोंकी तरह बढ़ाये, इसे तो नासमझी ही कहना चाहिए।

पैरोंकी ओर लापरवाही करनेसे भी हम अनेक रोगोंके चंगुल में पड़ जाते हैं। बूट आदि पहननेवालोंके पैर नाजुक हो जाते हैं। उनमें पसीना छूटता है और बदबू उठती है। जब कोई मनुष्य अपने बूट और मोजे खोलता है, तो जिसकी घ्राणेन्द्रिय ठीक है, वह उसके पास खड़ा भी नहीं रह सकेगा। उसके पैरोंसे कुछ ऐसी बदबू निकलती है ! हम तो अपने जूतोंको काँटारखा या पगरखा कहते हैं। अतः जब काँटोंमें चलना हो या गर्मी और ठंडे में घूमना हो, केवल तभी हमें जूते पहने की जरूरत है और सो भी ऐसे नहीं कि वे पूरे पैरोंको ढक दें; केवल तलुवोंको ही ढकें। महसूस हो, तो हमें केवल चप्पल ही पहननी चाहिए। जिसे सिरदर्दकी बीमारी हो, शरीरकी कमजोरी हो, पैरों में दर्द हो और जो जूते पहननेका आदी हो उसे बिना जूतोंके घूमने-फिरने का प्रयोग करके देखना चाहिए। इससे उसे शीघ्र ही मालूम होगा कि पैरोंको खुला रखनसे, जमीनसे उनका स्पर्श रखने में और पसीनेसे मुक्त रखकर हम कितना बड़ा लाभ उठा सकते है। चप्पल तो जूतोंका एक बड़ा सुन्दर प्रकार है और वह सस्ती भी पड़ती है। आफ्रिकामें पाइनटाउनसे जरा आगे ट्रैपिस्ट लोग[१] हर- एककी आवश्यकतानुसार चप्पल बना देते हैं। फीनिक्समें भी चप्पल बनाई जाती है। जो लोग केवल चप्पलसे ही काम चलानेकी हिम्मत न कर पायें उन्हें चाहिए कि जब-जब वे अपने पैरोंको खुला रख सकें, अवश्य रखें। और जब-जब बिना बूटके काम न चल सकता हों और पैरोंके लिए कुछ-न-कुछ पहनना आवश्यक हो, तब केवल चप्पलका ही उपयोग करें।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १९-४-१९१३

३१. पत्र: गो० कृ० गोखलेको

फीनिक्स
अप्रैल १९, १९१३

प्रिय श्री गोखले,

इस समयतक आप लन्दन रवाना हो चुके होंगे। मैं पूरी आशा करता हूँ कि वहाँ आपको कुछ विश्राम मिलेगा। मुझे अखबारोंसे यह जानकर दुःख हुआ कि आपको स्नायु-दुर्बलता हो गई थी। ऐसे ही अवसरोंपर मेरा मन आपके निकट होनेको विकल हो उठता है।

यहाँकी स्थितिके बारेमें श्री पोलक आपको विस्तारसे लिखेंगे। मैं तो केवल यही कहना चाहता हूँ कि यदि संघर्ष हुआ तो उसमें इस बार पहलेसे ज्यादा कष्ट-सहन करना

  1. १.देखिए खण्ड १, पृष्ठ १८२-८९