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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


हैं। ज्यों-ज्यों हमारे पास अधिक पैसा होता है, त्यों-त्यों हम टीप-टाप भी अधिक करने लगते हैं। कोई इस तरह और कोई उस तरह अपने रूपको सँवारना चाहता है। और फिर शीशे में अपना रूप देखकर मुस्कराता है कि वाह, मैं कितना खूब- सूरत हूँ ! एक लम्बी परम्पराके कारण हम सबकी दृष्टि यदि विकृत न हो गई होती तो हम सहज ही देख पाते कि मनुष्यका सुन्दरसे-सुन्दर रूप तो उसकी नग्नावस्थामें ही निहित है और उसी में उसका स्वास्थ्य भी है। हमने जिस हद तक वस्त्र धारण किये उसी हदतक हमने अपने रूपको खण्डित किया, समझिए। जैसे इतना ही बस न हो, इसलिए पुरुष और स्त्री, दोनों जेवर भी पहनते हैं। कुछ पुरुष तो पैरोंमें बेड़ी पहनते है, कानों में बालियाँ लटकाते हैं और हाथों में अंगूठियाँ रखते हैं। ये सारे गन्दगीके घर है और यह समझना तो बहुत कठिन है कि शोभा उनमें कहाँ है। स्त्रियोंने तो इसमें हद ही कर दी है। अपने पैरोंसे जिनका बोझ न ढोया जा सके, ऐसे कड़े और झाँझर, कानोंमें अगणित बालियाँ, नाकमें फूल और हाथोंमें तो जितने लादे जायें उतने गहने - यह सब पहनकर शरीरपर काफी मैल चढ़ा लिया जाता है। कानों और नाकमें तो मैलकी सीमा ही नहीं रहती। इस गन्दी हालतको शृंगार मानकर हम लोग इसपर पैसा खर्च करनेको बाध्य हो जाते हैं। अपने जीवन में चोर-डाकुओंका जोखिम बढ़ाते हुए भी नहीं डरते। यह सच ही कहा गया है कि अपने ही अभिमानसे उत्पन्न मूर्खतापूर्ण दुःख झेलकर हम उसकी जो कीमत भरते हैं, वह बहुत भारी है। कान पक जायें, तो भी स्त्रियाँ अपनी बालियां नहीं निकालने देतीं। हाथोंमें फोड़े हो जायें या उनमें पीब पड़ जाये तो भी चूड़ियाँ नहीं निकलवाई जा सकतीं। अंगुली पक चुकी है, परन्तु कोई पुरुष या स्त्री हीरेकी अँगूठीको निकलवा दे, तो उसके रूपमें खामी न आ जाये ! ऐसे उदाहरण तो सभी लोगोंने अपनी नजरों से देखें होंगे।

पोशाकके सम्बन्धमें अधिक सुधार करना मुश्किल है। फिर भी गहनोंको तो छुट्टी दी ही जा सकती है। उन वस्त्रोंको भी, जो जरूरतसे अधिक मालूम होते हैं, छोड़ा जा सकता है। यह भी सम्भव है कि ऋतु और रिवाजके अनुसार कुछ-एक वस्त्रोंको रखकर बाकी छोड़े जा सकें। जिस मनुष्यका मन इस वहमसे मुक्त हो चुका है कि पोशाक मनुष्यका भूषण है, वह तो इसमें अनेक सुधार करके अपने स्वास्थ्यको और अच्छा बना सकता है।

और आजकल तो यूरोपकी पोशाकको उचित मानकर पहननेकी हवा चल पड़ी है। उसका रोब पड़ता है और लोग सम्मान भी देते हैं। किन्तु इन सब बातोंका विचार करनेके लिए यह उचित स्थान नहीं है। यहाँ तो इतना-भर कहना जरूरी है कि यूरोपकी पोशाक वहाँके ठंडे देशों में भले ही उचित हो, अपने देशकी दृष्टिसे हिन्दुस्तानी पोशाक --हिन्दू और मुसलमान -दोनोंके लिए समुचित है। हमारे वस्त्र ढीले होनेसे हवाका आवागमन ठीक होता है। सफेद वस्त्र होनेसे उनपर सूर्यको किरणें बिखरकर पड़ती है। काले रंगके कपड़ों में सूर्यकी गरमी अधिक लगती है, क्योंकि उनपर जो किरणें पड़ती है, वे बिखर नहीं पातीं।

हम अपना सिर तो हमेशा ढके ही रहते है। बाहर निकलनेपर तो अवश्य ही ढंक लेते हैं। पगड़ी तो हमारा रूढ़ पहनावा हो गया है। फिर भी प्रसंगवश यदि