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परिशिष्ट

करते हुए १९०७ के एशियाई अधिनियमको रद करता था परन्तु प्रजातिगत प्रतिबन्धको दूर नहीं करता था; बल्कि सच तो यह है कि ऑरेंज फ्री स्टेटमें प्रवेशके सवालको लेकर वह उसके प्रभावको संघव्यापी बना देता था। इसके अतिरिक्त वह न केवल ट्रान्सवाल्के भारतीयोंके अन्य अधिकारोंका अपहरण करता था। बल्कि तटीय प्रान्तोंके निवासियोंसे भी ऐसे अधिकार छीन लेता था। इसका एक स्वरसे विरोध किया गया, बातचीत फिर प्रारम्भ की गई और सत्याग्रही नेताओंने यह सुझाव दिया कि इस विधेयकके बदले एक ऐसा विधेयक प्रस्तुत किया जाये जिसका सम्बन्ध केवल ट्रान्सवालसे ही हो । किन्तु यह सुझाव स्वीकार नहीं किया गया । आखिर यह विधेयक पास करना असम्भव जान पड़ा और एक अस्थायी समझौता हो गया जिसके अनुसार भारतीयोंने सत्याग्रह-संघर्ष स्थगित करनेका वचन दिया और सरकारने संसदके १९१२ के अधिवेशन में एक सन्तोषजनक विधेयक पेश करनेका वादा किया । यह भी तय पाया गया कि सरकार इस बीच कानूनका ऐसा अमल करेगी मानो उसमें परिवर्तन कर दिया गया हो विशेषरूपसे इससे पहलेके समझौतेकी शर्तोंका खयाल रखते हुए एक सीमित संख्या में शिक्षित प्रवेशार्थियोंको ट्रान्सवालमें आनेकी छूट दे देगी।

भारत में सम्राटके अभिषेकके अवसरपर सद्भावनाका और भी अच्छा वातावरण तैयार हो गया; उसका लाभ उठाकर एक और शिष्टमण्डल वहाँ भेजा गया। इसका उद्देश्य था दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंके प्रश्नपर जनमतकी रुचिको बनाये रखना और सरकारके सामने उन मुद्दोंको पेश करना जिनका कि भारतीय समाज आग्रह कर रहा था। किन्तु १९१२ के कानूनकी भी वही हालत हुई जो इससे पहलेके कानूनकी हुई थी और अस्थायी समझौतेकी अवधि एक वर्ष और बढ़ा दी गई। उसी समय सारे दक्षिण आफ्रिका माननीय श्री गोखलेके स्वागतकी तैयारियाँ होने लगीं। इस महाद्वीपमें उनकी यात्राकी स्मृति अब भी सबके मनमें ताजी है। वे भारतीय समस्यासे सम्बन्धित विचार-विमर्शको साम्राज्यीय धरातलपर ले जानेमें सफल हुए यह एक ऐसी सफलता थी जिससे अब तक कोई भी प्राप्त नहीं कर सका था। अपने उदार विचारों और राजनयिकता के कारण वे अपने विरोधियोंके भी प्रशंसाके पात्र बन गये थे। इसी यात्राके दौरान बादमें भारतीयोंने यह दावा किया कि सरकारने इस तथ्यको देखते हुए कि पिछले चार वर्षोंसे अधिक समय से भारत सरकार द्वारा भारतसे गिरमिटियोंका प्रवास बन्द कर दिया गया है, अन्यायपूर्ण तीन पौंडी करको रद करनेका वादा किया है।

किन्तु जब १९१३ का विधेयक संसद में पेश किया गया और भारतीय नेताओंने भारतीय प्रश्नके सम्बन्ध में, संवके मन्त्रियोंका रवैया देखा तो इस बातकी गम्भीर आशंकाएँ उत्पन्न हो गई कि यह स्थिति, जो भारतीय विवाहोंको लगभग अवैध ठहरानेवाले सर्ल-निर्णयके कारण पहले ही और अधिक उलझ गई है, एक बार फिर किसी भारी विपदाका रूप ले लेगी । सरकारको चेतावनी दी गई कि यदि वह शान्ति चाहती है तो विवादके प्रश्नका समाधान हो जाना चाहिए और कानूनसे प्रजातीय प्रतिबन्ध सदाके लिए समाप्त हो जाना चाहिए । सरकारने कुछ संशोधन पेश किये और वे स्वीकार भी कर लिये गये। उसका उद्देश्य वास्तविक एकपत्नीक विवाहोंको मान्यता देकर विवाहके विवादको तय करना था। किन्तु, विधेयक जिस रूपमें पास किया गया, उस रूपमें फिर भी वह सत्याग्रहियोंकी माँगोंको पूरा नहीं कर सका, और उधर तीन पौंढी कर भी बरकरार ही रहा। भारतीय नेताओंने संघर्षको पुनः आरम्भ करनेकी सम्भावनाओंको टालनेके लिए फिर एक अन्तिम प्रयास किया। संसदके अगले अधिवेशन में एक राहत कानून पास करानेका वचन प्राप्त करनेके उद्देश्यसे एक बार फिर बातचीत प्रारम्भ कर दी गई। किन्तु, तभी यूरोपीयोंकी हड़ताल शुरू हो गई, और श्री गांधीने सत्याग्रहियों के प्रवक्ताकी हैसियतसे इस उत्तेजनापूर्ण स्थितिमें कुछ काल तक भारतीयोंकी माँगोंपर जोर न देनेका वचन दे दिया। इस बीच श्री गोखलेके आग्रहपूर्ण निमन्त्रण- पर उनके प्रयत्नों में हाथ बँटाने के लिए एक शिष्टमण्डल इंग्लैंड रवाना हो गया था। इन प्रयत्नोंका उद्देश्य साम्राज्य सरकार और ब्रिटिश जनताको यह समझाना था कि परिस्थिति अत्यन्त गम्भीर है, और यदि

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