पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 12.pdf/६६४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६२४
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

और वैधानिक रंग-भेदको दूर कर उसके बदले सर्वसामान्य ढंगके कानून बनानेसे उन्होंने साफ इनकार कर दिया, यद्यपि यह स्पष्ट था कि एशियाई अधिनियमका भविष्य अन्धकारमय है। इसलिए शिष्टमण्डल, जिसके नेता श्री गांधी थे, दक्षिण आफ्रिका लौट आया। उसे अपने उद्देश्यमें आंशिक सफलता ही मिली थी, किन्तु, वह ऐसे स्वयंसेवकोंके एक दलकी व्यवस्था कर आया था, जिन्होंने चन्दा करने और इस विषयको जनताके समक्ष रखनेका दायित्व अपने सिर से लिया था।

भारत जानेवाले शिष्टमण्डलका स्वरूप इससे भिन्न था। इसके प्रस्थानके पूर्व एक महत्त्वपूर्ण घटना यह घटी कि जेलसे बाहर आते ही नागप्पनकी मृत्यु हो गई। उक्त शिष्टमण्डल के एकमात्र शेष सदस्य थे श्री पोलक । उन्होंने अपने-आपको पूरी तरह माननीय श्री गोखलेके हवाले कर दिया। उनकी सर्वट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी' ने बम्बईसे रंगून और मद्राससे लाहौर तक सारे देश में श्री पोल्कके लिए सभाओंका आयोजन कराया । लोगों में बड़ा प्रबल उत्साह फैल गया, दक्षिण आफ्रिकामें कष्ट सहन करनेवाले लोगोंक रूपमें भारतका राष्ट्रीय अभिमान जाग उठा, और बढ़ी तत्परतासे चन्दा किया जाने लगा । लोगोंने भी रतन जे० टाटाके उदाहरणसे प्रेरणा ली, देशी रजवाड़ोंने बड़ी उदारतासे दान दिया और संघर्ष चलानेके लिए १०,००० पौंडकी धनराशि एकत्र हो गई। सभी वर्गोंके लोगोंने एक स्वरसे साम्राज्य- सरकारके हस्तक्षेपकी मांग की, और शाही परिषदके ऐतिहासिक कलकत्ता-अधिवेशमें भारत सरकारने श्री गोखलेके प्रस्तावकी स्वीकृतिकी घोषणा की। सर्वसम्मतिसे पास किये गये इस प्रस्तावमें सरकारसे यह अनुरोध किया गया था कि वह भविष्य में नेटालके लिए भारत में गिरमिटिया मजदूरोंकी भर्तीको रोकनेकी सत्ता अपने हाथों में ले । तेरह महीनों के प्रचार-प्रसारके परिणामस्वरूप दक्षिण आफ्रिकी भारतीय प्रश्नके सम्बन्धमे भारतीय जनमत इतना प्रबुद्ध हो गया कि वहाँकी सरकार भी सजग और चिन्तित हो उठी । और जब देशके कोने-कोनेसे ट्रान्सवाल सरकारकी, संघर्षको कमजोर करनेके उद्देश्यसे, सत्याग्रहियों (जिनमें से बहुतोंका जन्म ही दक्षिण आफ्रिकामे हुआ था) को भारी संख्या में निर्वासित करके भारत भेजनेकी कार्रवाई के खिलाफ विरोधकी आवाज आने लगी तो भारत-सरकारके आग्रहपूर्ण निवेदनपर साम्राज्य सरकारने ट्रान्सवाल सरकारसे और बाद में संघ सरकारसे - निर्वासनकी कार्रवाई बन्द करनेका अनुरोध किया और वह उसमें सफल भी रही । आगे चलकर निर्वासित लोग दक्षिण आफ्रिका लौट गये, किन्तु उन्हें नारायणसामी-जैसे व्यक्तिको खोना पड़ा। उसे कानूनका कोई खयाल न रखते हुए ब्रिटिश क्षेत्र में कहीं भी नहीं उतरने दिया गया और डेलागोआ-बेमें उसकी मृत्यु हो गई।

इस बीच चारों दक्षिण आफ्रिकी उपनिवेश दक्षिण आफ्रिका-संवके प्रान्त बन गये थे । साम्राज्य- सरकारने अन्ततः भारतीयोंके पक्षको न्याय्यताको स्वीकार करते हुए और नई परिस्थितियोंकी सम्भावनाओंका लाभ उठाकर ७ अक्तूबर, १९१० को संघ-सरकारके नाम वह स्मरणीय खरीता भेजा, जिसमें उसने इस बातकी जोरदार सिफारिश की थी कि १९०७ के अधिनियम २ को रद कर दिया जाये और प्रजातिगत प्रतिबन्धको दूर करके उसके बदले भारतीयों द्वारा सुझाया हुआ प्रजातीय भेद-भावसे रहित ऐसा कानून बनाया जाये जिसमें प्रशासनिक भेद-भावके द्वारा भावी भारतीय आव्रजनकी एक न्यूनतम वार्षिक संख्या निश्चित हो जाये, और इस न्यूनतम संख्या के अनुसार ऐसे उच्च शिक्षा प्राप्त लोग ही आयें, जिनकी सेवाएँ भारतीय समाजकी कुछ विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्तिके लिए आवश्यक हैं। इस खरीतेके साथ एक शर्त यह भी जोड़ दी गई थी कि ट्रान्सवालके विवादको सुलझानेके लिए ऐसे किसी भी कदमको साम्राज्य सरकार सन्तोषजनक नहीं मानेगी, जिससे तटीय प्रान्तोंमें रहनेवाले भारतीयोंके हितोंकी हानि होती हो । संघके मन्त्रियोंपर इसकी प्रतिक्रिया अनुकूल हुई; संघर्षकी भीषणता कम हो गई, और आखिर १९११ में एक संघीय प्रवासी-विधेयक प्रकाशित किया गया, जिसका उद्देश्य इतने दिनोंसे चले आ रहे विवादको सुलझाना था। परन्तु स्पष्ट ही नया कानून अपने उद्देश्यको पूरा नहीं करता था; क्योंकि वह सर्वोच्च न्यायालयके अपील विभाग द्वारा छोटाभाईके मामलेमें दिये गये निर्णयके अनुसार नाबालिगोंको प्राप्त अधिकारोंकी रक्षा