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परिशिष्ट

देनेके लिए तैयार थी, जिनपर वह पहले आग्रह करती रही थी; किन्तु दो प्रमुख मुद्दोंपर वह हठपूर्वक डटी रही । उसने एशियाई अधिनियमको रद करने या प्रवासी कानूनसे प्रजातिगत प्रतिबन्ध हटानेसे दृढ़ता- पूर्वक इनकार कर दिया । संसदके दोनों सदनों में एक संशोधन विधेयक पास किया गया, जिसके अनुसार स्वेच्छया पंजीयनको कानूनी मान्यता दे दी गई और कुछ बातोंमें भारतीयोंकी स्थिति में भी सुधार किया गया । किन्तु, चूँकि उपर्युक्त कारणोंसे यह कार्रवाई भी मुख्यतः असन्तोषजनक ही रही, इसलिए सत्या- ग्रहियोंने इसे कोई मान्यता नहीं दी और जोर-शोरसे संघर्षं पुनः प्रारम्भ कर दिया। नये कानूनसे सरकारके हाथ मजबूत हो गये थे, क्योंकि उसमें उसे निर्वासन-दण्डके अधिकार दिये गये थे। किन्तु, प्रारम्भ में उसके ये अधिकार बेकार ही सिद्ध हुए । कारण, वह सत्याग्रहियोंको नेटालकी सीमाके पार करती नहीं कि वे उतनी ही जल्दी लौट आते जितनी जल्दी उन्हें निर्वासित किया जाता था।

इस अवस्था में संघर्षके विभिन्न व्यौरोंका विश्लेषण करना अनावश्यक ही होगा। इतना याद कर लेना ही काफी है कि पुर्तुगीज सरकारने डेलागोआ-बेमें ट्रान्सवाल लौटनेवाले ऐसे भारतीयोंका प्रवेश रोकनेर्मे ट्रान्सवालके साधनका काम किया जो उस उपनिवेशके वैध निवासी थे; सरकारके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अनेक परीक्षात्मक मुकदमे दायर किये गये, जिनमें से कुछमें वादियोंकी पराजय हुई और कुछमें विजय भी; ब्रिटिश भारतीय संवके अध्यक्ष श्री अ० मु० काहलियाने, जो धनोपार्जनकी क्षुद्र वासनाको तुलनामें अपनी प्रतिज्ञापर दृढ़ रहना और सम्मानकी रक्षा करना अधिक श्रेयस्कर समझते थे, खेच्छासे दिवालियापन स्वीकार किया; सभी वर्गोंके हजारों भारतीयोंको कारावास की सजा दी गई। भारतसे अपील की गई, जिनके उत्तरमें उस देशके विभिन्न भागों में विरोध-सभाओंका आयोजन किया गया; नेटालसे आर्थिक सहायता मिली; सारे देशके भारतीयों में उत्साहकी एक प्रबल भावना जाग्रत हो गई; लन्दनमें लॉर्ड ऍम्टहिल्की समिति और ब्रिटिश अखबार सक्रिय हो उठे; ट्रान्सवाल्के अखबारोंमें बड़े तीव्र विवाद उठ खड़े हुए; उधर ट्रान्स- वाल्के अनेक यूरोपीयोंकी प्रच्छन्न सहानुभूतिका परिणाम हॉस्केन समितिके गठनके रूपमें प्रकट हुआ, जिसने अनेक प्रकारसे ऐसी शानदार और देशभक्तिपूर्ण सेवाएँ कीं; 'टाइम्स' में एक खुला पत्र छपा; नेटाल और दक्षिण रोडेशिया द्वारा पास किये गये भारतीय-विरोधी कानूनोंपर शाही स्वीकृति नहीं दी गई; जोहानिसबर्ग और सारे दक्षिण आफ्रिका में भारतीयोंकी सार्वजनिक सभाएँ आयोजित की गई, इस बीच भारतीय समाजके कुछ वर्गोंकी हिम्मत टूटने लगी, किन्तु कुछमें और भी दृढ़ता आ गई; तमिल लोगोंकी शक्ति और सहिष्णुताका आश्चर्यजनक रहस्योद्घाटन हुआ; भारतीय महिलाओंने बड़ी ओजस्वी श्रमशीलताका परिचय दिया; बहुत-से कारोबार और घर बरबाद हो गये, बिखर गये; सत्याग्रहियोंके उत्साहको तोड़नेके लिए जेलोंमें उन्हें भीषण यातनाएँ दी गई; कारावासकी यातनाओंको बार-बार आमन्त्रित करनेवाले लोगोंने अप्रतिम साहसका परिचय दिया; संघर्ष मंजिलपर-मंजिल तय करता गया और उसके साथ संघर्षकर्ताओं में एक शानदार धार्मिक भावना विकसित होती गई; भाशाओं और आशंकाओंकी आँख-मिचौनी चलती रही। नेताओंने इस बातमें अपना विश्वास दृढ़ रखा कि वे अन्ततः सफल होंगे – यह सब ऐसी घटनाओंकी झलकियाँ प्रस्तुत करता है, जिन्होंने सत्याग्रह-संघर्षको महानताके पदपर प्रतिष्ठित कर दिया, और जो इस संघर्षकी सबसे बड़ी विशेषताएँ थीं।

सन् १९०९ के मध्य आन्दोलन में एक नये जीवनका संचार हुआ, जब दो अलग-अलग शिष्टमण्डलोंको जनमत तैयार करने और सहायता प्राप्त करनेके लिए इंग्लैंड और भारत जानेके लिए प्राधिकृत किया गया । जब प्रतिनिधिगण रवाना होनेको थे, तभी उनमें से अधिकांशको सत्याग्रहियोंके रूपमें गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया। स्पष्ट ही इसमें उद्देश्य यह था कि शेष प्रतिनिधि भी नहीं जा सके । किन्तु, समाजका आग्रह था कि शिष्टमण्डल जाये ही । इंग्लैंडमें इस प्रश्नमें लोगोंकी अभिरुचि फिर बढ़े तीव्र ढंगसे जग उठी और चूँकि उस समय संघ-अधिनियमके मसविदेके सिलसिलेमें ट्रान्सवाल्के मन्त्रिगण वहीं थे, साम्राज्यके अधिकारियोंने भरसक समझौता करानेका प्रयत्न किया। किन्तु, जनरल स्मट्सने बढ़ा दुराग्रह दिखाया,