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परिशिष्ट

मसविदेपर बहस चल रही थी, भारतीयोंकी एक सार्वजनिक सभा बुलाई। उधर परिषद् में - जिसकी बहस बिलकुल दिखावटी और पूर्व-निश्चित थी, दो घंटेसे भी कम समय में सारी कार्रवाई समाप्त कर दी गई, और इधर भीड़से खचाखच भरा एम्पायर थियेटर सरकारकी उस नीतिकी भर्त्सनामें दिये गये जोशीले भाषणोंसे--गूंज उठा, जो एक ओर तो लॉर्ड मिलनरके गम्भीर वचनको झुठला रही थी और दूसरी ओर बिना किसी सुनवाई-शहादतके भारतीय समाजको दोषी ठहराते हुए इस उपनिवेशसे, और अन्ततः दक्षिण आफ्रिकासे उसके निष्कासनका सामान जुटा रही है। इस नीतिसे उत्पन्न क्षोभ इतना तीव्र था कि जब प्रसिद्ध चौथा प्रस्ताव. जो उपस्थित लोगों और जिनका वे प्रतिनिधित्व करते थे, उन सबको भी उस विधेयकके पारित हो जानेपर तबतक के लिए जेल जानेकी प्रतिज्ञासे बाँध देता था जबतक कि उक्त कानून रद अथवा अस्वीकृत नहीं कर दिया जाता - पेश किया गया तो तीन हजारके उस विशाल जनसमुदायने एक स्वरसे उसका समर्थन किया और जब सत्याग्रहकी शपथ दिलाई गई तो सबने गम्भीररूपसे “तथास्तु " का स्वर उच्चारित किया। किन्तु, साथ ही एक भयानक संघर्षकी सम्भावनाको टालनेके लिए इंग्लैंड को एक शिष्टमण्डल भेजनेकी व्यवस्था भी की गई । प्रतिनिधिगण साम्राज्यीय अधिकारियोंसे मुलाकात करने और जनमतको जगानेके लिए चल दिये। उनके प्रयत्नोंके परिणामस्वरूप, ट्रान्सवालमें स्वशासनका समारम्भ निकट देखते हुए विधेयकपर शाही स्वीकृति स्थगित कर दी गई, और यह भी उन्हींके प्रयासोंका सुफल था कि प्रसिद्ध दक्षिण आफ्रिका ब्रिटिश भारतीय समितिका गठन किया गया, जिसके कार्यपालक अध्यक्ष हुए सर मंचरजी भावनगरी, मन्त्री श्री एल० डब्ल्यू० रिच और बादमें चलकर उसके सभापति (प्रेसिडेंट) पदका दायित्व संभाला लॉर्ड ऍम्टहिलने।

किन्तु, कानूनपर शाही अस्वीकृति अस्थायी छुटकारा ही थी; क्योंकि उपनिवेशकी यूरोपीय आबादीने साम्राज्य सरकारकी इस कार्रवाईका, जिसे उसने लगभग एक स्वशासित उपनिवेशके मामले में घृष्टतापूर्ण हस्तक्षेपके रूप में देखा, बहुत बुरा माना, और फिर उसने क्षुब्ध होकर यह माँग की कि इस अध्यादेशको शीघ्र ही पुनः कानूनी रूप दिया जाये । परिणामतः नयी संसदका लगभग पहला कार्य यह हुआ कि उसने सर्वसम्मतिसे एक ही अधिवेशनमें प्रस्तुत विधेयकपर सारी कार्रवाई समाप्त करके उसे कानूनका रूप दे दिया। उसने भारतीय जनमत और भारतीय विरोधोंका कोई खयाल नहीं किया; क्योंकि भारतीयोंका ऐसा कोई प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व नहीं था, इसलिए जान पड़ता है, किसीको भी उनकी भावनाओंका खयाल रखना आवश्यक नहीं लगा।

संवर्ष यद्यपि अब अवश्यंभावी हो गया था, फिर भी भारतीय नेताओंने सरकार और संसदसे यह अनुरोध किया था कि विधेयकको पास न किया जाये और पुनः पंजीयनके स्वेच्छया प्रयत्नको स्वीकार कर लिया जाये। और उनका कहना था कि इस पुनः पंजीयनका स्वरूप, जैसा दोनों पक्ष मिलकर तथ कर दें, वैसा ही हो । वे इस कार्य में हर सम्भव सहायता देनेको तैयार थे । किन्तु, उनकी एक न सुनी गई, और भारतीय समाजपर एक सुदीर्घ संघर्षकी सारी भीषण सम्भावनाएँ थोप दी गई । जुलाई १९०७ में नया कानून लागू कर दिया गया, और इसके अन्तर्गत सरकारी तौरपर पंजीयनकी कार्रवाई प्रारम्भ कर दी गई। विभिन्न हिस्सों में बारी-बारीसे पंजीयन होने लगा, और पंजीयन अधिकारी पूरे उपनिवेशमें एक नगरसे दूसरे नगरका दौरा करने लगे। किन्तु लोगोंको पंजीयनके लिए प्रेरित करनेके उनके सारे प्रयास सर्वथा विफल रहे, और इस कानूनकी शर्तोंके अनुसार आचरण करनेका एक अन्तिम अवसर देनेके विचारसे सरकारने पंजी- यनको विज्ञापित अवधिको बढ़ा दिया । किन्तु, भारतीय समाजके ९५ प्रतिशत लोग अपनी प्रतिज्ञापर डटे रहे। इस बीच सरकारके नाम एक प्रार्थनापत्र लिखकर इस स्थिति उत्पन्न परेशानियोंको समाप्त

१. देखिए खण्ड ५, पृष्ठ ४३०-३८ तथा ४५१-५६।

२. खण्ड ५, पृष्ठ ४३४।

३. देखिए खण्ड ७, पृष्ठ ३२०-२१।