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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अधिकारी जोर-शोरसे प्रयत्न कर रहे हैं; लॉर्ड सेबीने बादमें इस नीतिका बचाव करनेकी कोशिश की थी और जैसा कि अनिवार्य था बचाव बहुत शिथिल था। भारतीयोंके प्रवासपर शान्ति सुरक्षा अध्यादेशसे कठोर प्रतिबन्ध लग गया। लॉर्ड मिलनरने १८८५ के कानून ३ के अधीन लगभग सभी बालिग भारतीय पुरुषोंके पंजीयनका आग्रह किया और अन्तमें भारतीय नेताओंने इसे एक सर्वथा स्वेच्छया किये जानेवाले कामके रूपमें मान लिया । क्योंकि लॉर्ड मिल्नरने निश्चित वचन दिया कि यह पंजीयन सम्पूर्ण और अन्तिम माना जायेगा और जो प्रमाणपत्र जारी होंगे उनके धारकोंको निवासका स्थायी हक होगा और इच्छानुसार बाहर आने-जानेका भी इक होगा।

इसी बीच १८८५ का कानून ३ लागू किया जा रहा था ताकि सभी भारतीयोंको बस्तियों (लोकेशन्स) में रहने और वहीं व्यापार करनेपर मजबूर किया जाये । अतः युद्धके पहलेका पुराना झगड़ा फिर चल पड़ा। उसका परिणाम यह हुआ कि सर्वोच्च न्यायालय में एक अपील हुई जिसने रिपब्लिकन हाईकोर्ट के पुराने निर्णयको उलट दिया और ऐसा माना किं भारतीय जहाँ चाहें वहाँ व्यापार कर सकते और बस्तियोंमें न रहना कानून द्वारा दण्डनीय अपराध नहीं है। यूरोपीय जनतामें जो भारत-विरोधी तबका था, उसके लिए यह निर्णय एक कठोर आघात था। उस तबकेका सरकार में भी प्रतिनिधित्व था और सरकारने ऐसा कानून बनानेका प्रयत्न किया जिससे सर्वोच्च न्यायालयके निर्णयका प्रतिकार हो जाये । किन्तु तत्कालीन उपनिवेश-सचिव स्वर्गीय श्री लिटल्टनके हस्तक्षेपसे वह प्रयत्न असफल रहा। परन्तु आम जनताको झूठे आँकड़ोंसे यह विश्वास दिलाया गया कि ट्रान्सवालमें एशियाश्योंका अनधिकृत आगमन बहुत ज्यादा है। १९०४ में प्लेगके प्रकोपके समय जोहानिसबर्गकी भारतीय बस्तीके जला दिये जानेपर वहाँके निवासी भारतीयोंके पूरे उपनिवेशमें तितर-बितर हो जानेसे जनताके उस विश्वासको और भी बल मिला । ट्रान्सवालमें सब जगह इस उद्देश्यसे सभाएँ की गई कि एशियाश्योंकि प्रवासके सभी द्वार बन्द कर दिये जायें और भारतीयोंको वस्तियोंमें ही रहने तथा वहीं व्यापार करनेको मजबूर किया जाये । इस प्रकार पूर्वग्रह और भयका जो वातावरण बना, उसमें भारतीय समाजके लिए अपनी निर्दोषताकी बात कहना सम्भव नहीं रह गया और उसकी इस माँगकी, कि शाही आयोग द्वारा या किसी अन्य तरीकेसे इस सवालकी खुली और पक्षपात रहित जाँच होनी चाहिए, कोई सुनवाई नहीं हुई । अतएव १९०९ में जब १८८५ के कानून ३ के “संशोधन " के लिए उस अध्यादेशका मसविदा प्रकाशित हुआ जिसमें समूचे भारतीय समाज - आदमियों, औरतों और बच्चोंका दुवारा पंजीयन कराना जरूरी माना गया था तो यूरोपीय जनताने उसका बड़े शोरगुलके साथ स्वागत किया, जब कि उन भारतीयोंपर जो इससे पीड़ित होनेवाले थे वज्रपात-जैसा हुआ । अधिकारियोंने जो इसकी जरूरत समझी उसका मूल कारण यह था कि उन्हें यह दृढ़ विश्वास हो गया था कि भारतीयोंका गैर-कानूनी किस्मका प्रवास अत्यधिक हो रहा है और उसमें अधिवासी भारतीयोंका हाथ भी अवश्य है । जहाँतक आम जनताका सम्बन्ध था उसने इस अध्यादेशको भारतीयोंको उपनिवेशसे पूरी तरह बाहर भगानेकी योजनाका पहला कदम मानकर उसका भरपूर स्वागत किया। पड़ोसी उपनिवेशों और प्रदेशोंके यूरोपीय इस घटनाको उत्सुक दर्शकोंकी तरह देखते रहे जैसा कि उन्होंने १९०३ में किया था जब कि लॉर्ड मिलनरने भारतीयोंको बस्तियों में रहने और व्यापार करनेपर मजबूर करनेका असफल प्रयास किया था। उनकी मंशा यह थी कि वे भी इस नई नीतिके परिणामोंका लाभ अपने आपको एशियाई " दुःस्वप्न" से मुक्त करने में उठा सकें।

समाजपर जिस भयानक विपत्तिका खतरा आ उपस्थित हुआ था, उससे आतंकित होकर भारतीय नेताओंने, यदि सम्भव हो तो, उसे टालनेके लिए शीघ्रतासे कार्रवाई प्रारम्भ कर दी। उन्होंने सरकारके जिम्मेदार सदस्यसे भेंट मांँगी । किन्तु उन्हें केवल इस कानूनके व्यवहारसे स्त्रियोंको छूट दिलाने में ही सफलता मिली, और अन्तिम उपायके रूपमें ठीक उसी समय, जबकि विधान परिषद में इस अध्यादेशके

१. देखिए खण्ड ३, १४ ३३१ ।