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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


उदारताकी नीति बरतनेकी इच्छा रखती है। किन्तु, उनके इस कथनकी व्याख्या तो उपर्युक्त विचारके प्रकाशमें ही करनी होगी ।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १९-४-१९१३

२५. लॉर्ड ऍम्टहिलकी समिति

लॉर्ड ऍम्टहिलकी[१] समितिने उपनिवेश-मन्त्रीको जो आवेदन भेजा है वह एक वजनदार और विस्तृत दस्तावेज है। इससे कोई भी दक्षिण आफ्रिकामें भारतीयोंसे सम्बन्धित घटनाओंका संक्षिप्त और क्रमबद्ध रूपमें अध्ययन कर सकता है। समितिने कुछ मामलोंके दृष्टान्त देकर स्पष्ट सिद्ध कर दिया है कि संघ-सरकारको नीति दक्षिण आफ्रिकासे अधिवासी भारतीय आबादीको निर्मूल कर देनेकी है। दक्षिण आफ्रिकाके प्रवासी कानूनों-पर जिस प्रकार अमल किया जा रहा है, उसके कारण भारतीयोंका यहाँ रहना अधिकाधिक कठिन होता जा रहा है। और अगर कहीं प्रवासी कानून हमारा विनाश करनेमें असमर्थ हो जाते हैं तो वहाँ नेटालका परवाना कानून हमारे कष्टोंका कारण बन जाता है। समितिका पत्र एक ऐसा दस्तावेज है जिसका उत्तर देना स्थानीय सरकारके लिए कठिन होगा।

समितिने एक ऐसा मुद्दा उठाया है जो साम्राज्य सरकार और स्थानीय सरकार, दोनोंको आश्चर्यमें डाल देगा। स्थानीय सरकारने कितनी ही बार कहा है कि दक्षिण आफ्रिकाका कानून बहुपत्नीत्वको स्वीकार नहीं करता। किन्तु समिति यह सिद्ध करने में सफल हुई है कि वह १९०७ तक मान्य रहा है और सो भी एक कानूनके अधीन । नेटालके १९०७ के अधिनियम २ के खण्ड ६ और ७ में व्यवस्था है कि :

खण्ड ६ -- १८९१ के भारतीय प्रवासी कानूनके खण्ड ६८ की धाराएँ, इस कानूनके लागू होने के बाद, उपनिवेशमें आनेवाले भारतीय प्रवासियोंकी विवाह-पंजिकाकी प्रामाणिक प्रतिलिपियोंमें उल्लिखित सभी विवाहोंपर लागू होंगी--फिर चाहे ऐसा कोई विवाह बहुपत्नीक विवाह ही क्यों न हो।

खण्ड ७- इस कानूनके लागू होनेके पूर्व उपनिवेशमें आये हुए किसी भी भारतीय प्रवासीकी, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, दरखास्तपर भारतीय प्रवासियोंका संरक्षक उसके विवाहका पंजीयन करेगा, बशर्ते कि वह प्रवासी अपनी विवाह-पंजिकाकी प्रामाणिक प्रतिलिपि पेश कर सके और इस बातको सिद्ध कर सके कि उस कागजमें उल्लिखित व्यक्ति वही है। फिर चाहे कोई विवाह बहुपत्नीक विवाह ही क्यों न रहा हो, अथवा उस पुरुषका उक्त कानूनकी व्यवस्थाओंके अनुसार इस उपनिवेशमें किसी दूसरी भारतीय स्त्रीके साथ विवाह क्यों न हुआ हो ।

  1. १. दक्षिण आफ्रिका ब्रिटिश भारतीय समिति, लन्दन, के अध्यक्ष । देखिर खण्ड ८ पृष्ठ ८७ पा०टि०१।