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परिशिष्ट २८
संघर्ष और उसके परिणाम
(सम्पादकीय)

कितनी ही बार ईश्वरकी इच्छासे छोटी-छोटी सेनाओंने बड़ी-बड़ी सेनाओंको

पराजित किया है। ईश्वर उनके साथ है जो धैर्यपूर्वक निरन्तर उद्योग करते हैं।--कुरान

तुम्हारे पूर्ववतियोंको तपस्याको जिस आगसे गुजरना पड़ा उससे तो तुम्हें

गुजरना नहीं पड़ा। तब तुम स्वर्ग में प्रवेश करनेकी इच्छा क्यों करते हो ? दुर्भाग्य और विपत्तियोंके प्रहारोंने उनकी कड़ी परीक्षा ली थी।--कुरान

एक सीमित स्थानमें ऐसे आन्दोलनकी उत्पत्ति और घटना-क्रमका पर्यावलोकन जो दक्षिण आफ्रिकी भारतीयोंके इतिहास में आठ वर्ष तक चलता रहा, एक ऐसा काम है जिसे संतोषजनक ढंगसे कर सकना असंभव है। अतएव इस खाकेमें शीघ्रतासे खींची हुई रूपरेखाका संकेत कर दिया गया है जिसमें यत्र-तत्र विशिष्ट घटनाओंपर कुछ अधिक जोर दे दिया गया हैं और इस प्रकार बुनियादी रूपरेखाका

संकेत कर दिया गया है। सत्याग्रह आन्दोलनकी उत्पत्तिके कारण १९०६ के आन्दोलनमें नहीं खोजने चाहिए; वे खोजे जाने चाहिए उस आन्दोलन में जिसका पहला दौर ट्रान्सवालमें १८८५ में और दूसरा नेटालमें १८९४ में शुरू हुआ । १८८५ का पुराना रिपब्लिकन कानून ३, आफ्रिकामें रहनेवाले एशियाइयोंपर अनेकों बोझ डालनेके साथ-साथ यह भी अपेक्षा रखता था कि उनमें से जो व्यापारके लिए आये हों वे एक निश्चित फीस देकर अपना पंजीयन करायें और यह भी कि सफाईकी रक्षाके खयालसे वे उन बस्तियों में रहें जो खास करके उनके लिए अलग रखी गई हैं। किन्तु बहुत हद तक ये दोनों अपेक्षाएँ कानूनमें ही रहीं । अलबत्ता उनके कारण ब्रिटिश सरकारके साथ झगड़ा शुरू हो गया । अन्तमें इस झगड़ेके निपटारेके लिए युद्धकालमें साम्राज्यीय हस्तक्षेप हुआ और ब्रिटिश प्रजाके नाते अधिवासी-भारतीयसे यह वायदा किया गया कि उनकी शिकायतोंको पूरी तरह दूर किया जायेगा।

ब्रिटिश उपनिवेश नेटालमें स्थिति इसलिए काफी उलझ गई थी कि वहां यूरोपीय उपनिवेशियोंके कहनेपर गिरमिटकी शर्तमें बांधकर बहुत बड़ी संख्या में भारतीय मजदूर लाये गये थे और वहाँके लोगोंको अब उनकी उपस्थिति खलने लगी थी । यह विरोध इतना बढ़ा कि अनिर्बंन्ध एशियाई आव्रजनकी समाप्ति तथा एशियाश्योंके मताधिकारके अपहरणके लिए एक आन्दोलन खड़ा हो गया । सवाल यह था कि यह उद्देश्य एक जातीय भेदभाववाले कानूनसे हासिल किया जाये या एक साधारण कानूनके भेदमूलक अमलके द्वारा । इन दो दृष्टिकोणोंमें कुछ समय तक संघर्ष होता रहा परन्तु अन्तमें श्री चेम्बरलेनको राजनीति पटुताके फलस्वरूप सन् १८९७में दूसरावाला तरीका अपनाया गया और प्रसिद्ध "नेटाल ऐक्ट" पास हो गया जिसने जातीय भेद-भावकी जगह एक शैक्षणिक परीक्षा लागू कर दी। उसके बादसे नेटालमें जाति-भेदवाले कानूनोंका बनना बन्द हो गया और इसीलिए फिर नई मुसीबतके प्रथम चिह्न ट्रान्सवालमें उदय हुए, क्योंकि वहाँ रंगदार लोगोंके दर्जेकी राजनीतिक कल्पना भिन्न होनेके कारण कानूनी समानताका सिद्धान्त स्वीकार नहीं किया गया था।

युद्धके बाद दुबारा जो समझौता हुआ उसमें ऐसी आशा की गई थी कि ब्रिटिश भारतीयोंके धन्धोंपर जो बोझ है वह हटा दिया जायेगा, परन्तु भारतीयोंको यह देखकर बहुत निराशा हुई कि युद्ध-काल में उन्होंने जिस काले कानूनका जोरदार विरोध किया था उसे लागू करनेके लिए साम्राज्यीय