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परिशिष्ट

२. साथ में उन दो पत्रोंकी प्रतियाँ भेज रहा हूँ, जिनका सार मेरे तारमें दिया गया था । मन्त्री महोदयने जो रियायतें देनेका वादा किया है, वह उनकी उदारता और राजनयिकताका परिचायक हैं। मेरे ३० मईके गुप्त खरीतेमें उल्लिखित श्री गांधी की सारी शर्तें पूरी कर दी गई हैं; यद्यपि मौजूदा कानूनों और विशेषकर ट्रान्सवाल स्वर्ण-कानूनके अमलमें निहित अधिकारोंकी रक्षा करनेके सम्बन्ध में श्री जॉर्जेसके पत्रके अन्तमें दिया गया सामान्य आश्वासन श्री गांधी जितना चाहते थे उतना सुनिश्चित और स्पष्ट नहीं है। मेरा खयाल है इस मुद्दे पर सहमति होनेमें सबसे अधिक कठिनाई हुई। पिछले रविवारको जनरल स्मट्सने कहा कि उससे एक दिन पूर्व श्री गांधीने उनसे मुलाकात की थी। उनकी बातचीत दो घंटे चली थी और स्वर्ण-कानूनके अमलके अलावा अन्य सभी प्रश्नोंपर सहमति हो गई ही दीखती थी। किन्तु, स्वर्ण- कानूनके सम्बन्ध में जैसा कि मन्त्री महोदयका खयाल था, श्री गांधी निहित अधिकारोंकी पुष्टि नहीं, बल्कि उनके विस्तारकी माँग कर रहे थे। उन्हें ऐसा लगा कि उनसे जो सुनिश्चित आश्वासन माँगा जा रहा है, वह दे सकना उनके लिए सम्भव नहीं है। वे समझौतेके लिए बहुत उत्सुक थे और इसलिए अब भी यह सोच रहे थे कि क्या-कुछ किया जा सकता है, किन्तु उन्हें इस बातमें सन्देह था कि वे श्री गांधी जितना चाहते थे, उतना-कुछ कर पायेंगे । आगेकी बातचीत श्री जॉर्जेसने की और अन्त में श्री गांधी प्रस्तावित फार्मूलेको स्वीकार करने और सौदा तय कर देनेको तत्पर हो गये – इसका कारण चाहे उनका मूड रहा हो, या मधुर विवेक अथवा उन्हें जो-कुछ प्राप्त हो गया था उसे अप्राप्यके लिए खो देनेकी उनकी अनिच्छा । फ्रि दोनोंके बीच कुछ लिखा-पढ़ी हुई और दूसरे दिन सुबह, यानी इसी १ तारीखको, श्री गांधी केप टाउनसे डर्बनके लिए प्रस्थान कर गये। मेरे सचिवको, जिसकी संयोगवश उनके प्रस्थानके समय उनसे मुलाकात हो गयी, उनके अभी हालके उपवासके कारण उनकी मुखाकृतिमें कोई परिवर्तन नहीं दिखाई दिया। उसने थोड़ी देर तक उनसे बातचीत भी की, जिसके दौरान उन्होंने बड़ी नम्रताके साथ समझौते में अपने योगदानकी चर्चा करते हुए दूसरोंके योगदानकी मुक्त-कण्ठसे प्रशंसा की।

३. श्री गांधी सत्र समाप्त होनेके शीघ्र वाद, संलग्न पत्र-व्यवहारको, शायद, प्रकाशित करेंगे । राष्ट्र- वादियोंके बीच सरकारकी लोकप्रियतामें कोई वृद्धि हो पानेकी सम्भावना नहीं है, और अन्य हलकोंमें भी, विशेषकर नेटालमें, इसकी मिली-जुली प्रतिक्रिया हो सकती है। इन परिस्थितियों में संसदका सत्र समाप्त होनेके पूर्व इसके प्रकाशनसे असुविधा हो सकती है। और जनरल स्मट्सने जिस साहसके साथ अपने दलके एक बहुत बड़े हिस्सेकी भावनाओंकी उपेक्षा कर दी, उसके सम्बन्धमें तो कुछ कहना बेकार ही है।

४.श्री जॉर्जेसके पत्र में बताये गये प्रथम मुद्देके सम्बन्धमें दिये गये आश्वासनसे तीन पौंडी परवानेको पद्धतिकी समाप्तिके प्रभावके सम्बन्ध में नेटालमें जो आशंकाएँ उत्पन्न हो गई हैं, उन्हें काफी हदतक दूर हो जाना चाहिए । इन्हीं मिथ्या धारणाओंके कारण डर्बनसे विधेयकपर “निषेधाधिकारका प्रयोग" करनेका आग्रह करते हुए वे मूर्खतापूर्ण तार आये हैं, जो मैंने आपको अपने इसी २ तारीखके ४६७ और ४६८ नम्बरके खरीतोंके साथ प्रेषित किये हैं। इनमें से एकके प्रेषक हैं श्री के० के० पिल्ले, जो अपने-आपको “तीन-पौंडी कर समितिका अध्यक्ष " बताते हैं । किन्तु, कहते हैं, वे कोई रुतबेवाले आदमी नहीं हैं । मुझे बताया गया है कि इसमें भी सन्देह ही है कि दूसरे तारके प्रेषक श्री एम० सी० कुवादियाका नेटाल- भारतीय कांग्रेसके सदस्योंके बीच भी कोई बड़ा समर्थन है । मुझे सूचना मिली है कि उन्होंने अभी- हालमें जो तथाकथित “सार्वजनिक सभा " बुलाई, उसमें भी मात्र कोई तीस भारतीय ही उपस्थित थे। हाँ, मैं इस कथनकी यथार्थताके सम्बन्धमें कोई हलफ नहीं ले सकता । उन्होंने इस कानूनके खण्ड ७ के पुनः रचित रूपकी आलोचना की है । इस आलोचनामें कुछ चल अवश्य है। किन्तु, ऐसा नहीं है कि इस मुद्देको नजरभन्दाज कर दिया गया था। मैंने इस नई धाराको सर्वप्रथम, जब वह

१. देखिए परिशिष्ट २६ और “पत्र : ई० एम० जॉर्जेसको ", पृष्ठ ४२९-३० ।