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परिशिष्ट
समाजके असहयोगके प्रश्नपर

सर्वश्री गांधी, पोलक और कैलेनबैककी रिहाईकी सिफारिश आयोगने जिस उद्देश्यको दृष्टिगत रखकर को थी, दुर्भाग्यवश वह उद्देश्य इन नेताओं द्वारा अपनाये गये रवैयेसे बहुत हद तक विफल हो गया।

भारतीय समाजकी कथित शिकायतोंको दूर करानेकी गरजसे आयोगके सामने समाजका मामला पेश करके, और हड़तालके सिलसिलेमें जेलकी सजा पानेवाले व्यक्तियोंपर अत्याचारके गम्भीर आरोपोंको सिद्ध करनेके लिए सबूत देकर उसकी सहायता करनेके बजाय नेताओंने विभिन्न कारणोंसे, जिनका उल्लेख करना अनावश्यक है, उसकी सर्वथा उपेक्षा करनेका निश्चय किया। फलस्वरूप आयोगके सामने भारतीय समाजकी ओरसे कोई वकील ही नहीं बल्कि श्री गांधीकी सलाहपर अत्याचारके आरोप सिद्ध करनेके लिए कोई गवाह भी उपस्थित नहीं हुआ।

भाग्यवश, हमारी बैठकोंके अन्तिम अवसरपर कुछ थोड़ेसे भारतीय मुख्यतः भारतीय समाजके मुस्लिम वर्गीके सदस्य, जो नेटाल भारतीय कांग्रेसका प्रतिनिधित्व कर रहे थे, हमारे सामने उपस्थित हुए और काफी मूल्यवान महत्त्वपूर्ण बयान दिये। जाँचके अगले दौर में, २३ से २७ फरवरी तक आयोगको बैठक केप टाउनमें हुई, और इसमें अन्य बहुतसे भारतीयोंने, जो विभिन्न संस्थाओं के प्रतिनिधि होनेका दावा करते थे, बयान दिये। इनमें से तीन व्यक्ति तो इसी उद्देश्यसे ट्रान्सवालसे आये थे। इम समझते हैं कि इन लोगोंने श्री गांधी द्वारा आयोगकी उपेक्षा करनेकी अपने देशवासियोंको दी गई सलाह अस्वीकार करके ठीक हो किया। उपस्थित होकर और बयान देकर उन्होंने हमें कतिपय विषयोंपर महत्त्वपूर्ण सूचना दी, और इस प्रकार हमारी रायमें उन्होंने भारतीय समाजकी काफी सेवा की।

हड़तालके कारणोंके बारेमें

हमें जो विभिन्न नीली पुस्तिकाएँ उपलब्ध हुई उनमें संकलित प्रमाणोंसे यह स्पष्ट हो जाता है कि हड़तालका तात्कालिक कारण १९१३ के प्रवासी नियन्त्रण अधिनियमकी व्यवस्थाओंसे भारतीय समाजके नेताओंका असन्तोष था।

श्री गांधी जब इन मुद्दोंपर मन्त्रीसे सन्तोषजनक आश्वासन पा सकनेमें विफल हो गये तब उन्होंने जान-बूझकर एक ऐसा गंभीर कदम उठानेका निश्चय किया जिसका तात्कालिक परिणाम हड़ताल और उन दंगोंके रूपमें प्रकट हुआ जो इस जाँचके विषय हैं। २८ सितम्बरके अपने पत्रमें, जिसके साथ ही मन्त्री महोदय और श्री गांधीके बीच पत्र-व्यवहार समाप्त हो गया, श्री गांधीने मन्त्री महोदयको सूचित किया है कि अब मेरा मंशा जिन लोगोंको ३ पौंड़ी कर देना पड़ता है उनसे पूरी शक्ति लगाकर आग्रह करते रहनेका है कि वे कर देनेसे इनकार कर दें और कर न देनेकी सजा भोगें। इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जो लोग इस वक्त गिरमिटके अधीन काम कर रहे हैं, और इसलिए गिर मिटकी अवधि समाप्त होनेपर तीन पौंडी कर देनेको बाध्य होंगे, वे भी तबतक हड़तालपर रहें जबतक कि यह कर रद नहीं कर दिया जाता।

यह पहला अवसर है जब कि उपर्युक्त पत्रव्यवहारमें ३ पौंड़ी करका उल्लेख किया गया था । इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह एक ऐसा कर था जिसपर बहुतसे भारतीयोंको बहुत सख्त आपत्ति थी, और सन् १९१२ में जब श्री गोखले दक्षिण आफ्रिका आये थे उस समय उनके और संघ-सरकारके बीच हुई बातोंमें यह एक मुख्य विषय था । भारतीयोंमें तब नेताओंने यह बात फैलाई कि संघ-सरकारने श्री गोखलेसे वादा किया था कि करको रद करनेके लिए संसदके अगले सत्र में एक विधेयक पेश किया जायेगा।

इसीलिए, जब ऐसा कोई विधेयक नहीं पेश किया गया और यही नहीं, जब सरकारने ऐसा वादा करने तक का खण्डन कर दिया तब भारतीय समाजको बड़ी निराशा हुईं, विशेष रूपसे नेटालमें श्री गोखलेको वचन दिया गया था या नहीं इसे लेकर जो विवाद उठ खड़ा हुआ है उसपर इस जाँचमें विचार कर सकना