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परिशिष्ट

नियुक्तिकी माँग की गई। अपनी रिहाई के तुरन्त बाद स्थितिको ठीकसे समझते हो, हमने मंत्रालयको एक पत्र लिखा, जिसमें आयोगमें इन लोगोंको शामिल करनेकी माँग की। जिस रूपमें इमने यह माँग प्रस्तुत की, उसपर आपत्ति की गई है, परन्तु हमारे सामने बड़ा भारी संकट उपस्थित हो गया है और ऐसे मौकोंपर कोई कदम उठानेके तरीकेकी अच्छाई-बुराईका ठीकसे ध्यान रखना बराबर आसान नहीं होता। भारतीय सदासे इस बातपर जोर देते आये हैं कि चूँकि भारतीय समाज मताधिकारहीन है, इसलिए जिन मामलों में समाजके महत्त्वपूर्ण हितोंका सम्बन्ध हो, उनके बारेमें कमसे-कम अनौपचारिक रूपसे तो अवश्य ही उससे सलाह-मशविरा कर लिया जाये। वर्तमान आयोगके गठनमें न केवल भारतीयों की भावनाका कोई खयाल ही नहीं रखा गया, बल्कि उसे बुरी तरह कुचला गया है। यूरोपीय रेलवे कर्मचारियोंकी शिकायतोंके सिलसिले में हालमें जो गतिरोध पैदा हो गया था, उसमें तो मत-संग्रहकी व्यवस्था करके उन्हें अपना एक प्रतिनिधि चुननेकी अनुमति दे दी गई । हम तो केवल अनौपचारिक रूपसे हमसे सलाह-मशविरा करनेकी माँग कर रहे हैं। जेलसे निकलनेपर हमने अपने देश भाइयोंके क्षोभको अपनी पराकाष्ठापर पाया । उसका कारण था कोड़े लगानेकी वे वारदातें, जिन्हें उन्होंने अपनी आँखोंसे देखा था, गोलियाँ चलनेकी वे घटनाएँ, जिनका कोई औचित्य नहीं था और इसी प्रकारके और भी अनेक दुर्व्यवहार । और अपनी सजाकी अवधि पूरी करके जेलसे आनेवाले लोगोंने समाजके सामने जेलमें सत्याग्रहियों – जिनमें महिलायें भी शामिल थीं- के साथ किये जानेवाले व्यवहारके जो हृदय विदारक विवरण प्रस्तुत किये थे, उनसे उसकी क्षोभकी भावना और भी उग्र हो उठी थी । अबतक हमें इस देश में जेलके जितने भी अनुभव प्राप्त हुए हैं, उनमें कभी भी हमारे साथ ऐसी बेमिसाल क्रूरताके साथ व्यवहार नहीं किया गया । वार्डर हमारा अपमान करते थे। जूलू वार्डर जब-तब हमें मार बैठते थे, कम्बल तथा अन्य आवश्यक सामान नहीं दिये जाते थे और हमें जूलू लोगों द्वारा बुरी तरह पकाया हुआ खाना दिया जाता था। इस सबसे भूख हड़ताल करनेकी जरूरत पड़ी, जिसमें बहुत ही कष्ट सहना पड़ा । आपके लिए इन बातोंको जानना जरूरी है, क्योंकि उसके बिना आप भारतीयोंकी उस मनोदशाको नहीं समझ सकेंगे, जिस मनोदशामें वे स्थितिपर विचार करने और अपना आगेका कदम निश्चित करनेके लिए २१ दिसम्बरको एक आम सभामें एकत्र हुए थे । सभामें केवल एक ही भावना व्याप्त थी और वह यह कि यदि हममें जरा भी आत्मसम्मान है तो हमें आयोगको तबतक स्वीकार नहीं करना चाहिए जबतक उसमें कुछ इस ढंगका संशोधन नहीं कर दिया जाता जो भारतीयोंको अनुकूल पढे । इसके अतिरिक्त हम वास्तविक सत्याग्रही कैदियोंको - जिनमें हम उन लोगोंको शामिल नहीं करते जिन्हें सचमुच हिंसात्मक कार्रवाईके कारण सजा देकर उचित ही किया गया - छोड़नेकी माँग करेंगे। हम सबने ईश्वरको साक्षी मानकर यह गम्भीर शपथ ली कि यदि ये शर्तें पूरी नहीं की जातीं तो हम पुनः अपना सत्याग्रह संघर्ष जारी कर देंगे। अब हमारा यह निश्चय है कि चाहे जो भी हो, हम इस शपथपर कायम रहेंगे । इस संघर्ष में हम आत्मिक अस्त्रोंसे लड़ रहे हैं, और हमारे लिए अपनी पवित्र शपथसे पीछे हटनेका कोई रास्ता नहीं है । इसके अलावा, इस मामले में ऐसा नहीं है कि नेता लोग समाजको उकसाकर यह सब करवा रहे हों । इसके विपरीत अपनी शपथपर डटे रहनेका समाजका निश्चय इतना दृढ़ है कि यदि किन्हीं नेताओंने आयोगमें जिस ढंगते सुधार सुझाये गये हैं उस ढंगके सुधार किये बिना उसे स्वीकार करनेकी सलाह दी तो निसन्देह वे मार डाले जायेंगे; और मैं कहूँगा कि ऐसा करना उचित भी होगा । मेरा खयाल है हम सफल हो रहे हैं। कई प्रभावशाली यूरोपीय, जिनमें कुछ पादरी भी हैं, हमारी स्थितिको न्यायोचित मानते हुए हमारी मददके लिए काम कर रहे हैं और हमने अभी यह आशा नहीं छोड़ी है कि शायद समस्याका कोई हल निकल आये। अपनी बात खत्म करनेसे पहले मैं यह कहना चाहूँगा कि इस सारे संकटमें दो चीजोंसे हमें बहुत ढाढ़स बँधा है और हमारा उत्साह बना रहा है। एक तो परम- श्रेष्ठ वाइसरायका वह अप्रतिम साह है जिसके साथ उन्होंने हमारे उद्देश्यकी जबरदस्त वकालत की है,