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परिशिष्ट ४
अ० मु० काछलियाका भाषण

जोहानिसबर्ग

अप्रैल २७, १९१३

अभी हाल ही में चिर-प्रतीक्षित प्रवासी विधेयक प्रकाशित हुआ है । उसे समझनेके लिए फिर एक सार्वजनिक सभाका आयोजन करना आवश्यक हो गया। सरकारको संघकी ओरसे आदरपूर्वक एक विरोधका तार भेजा जा चुका है। उसमें विधेयकके प्रति हमारी सारी आपत्तियों बता दी गई हैं। उसके उत्तर में सरकारने लिख भेजा है कि इन आपत्तियोंपर ध्यानपूर्वक विचार किया जा रहा है। इसलिए हम आशा कर सकते हैं कि विधेयकमें हमारी आपत्तियों के अनुसार संशोधन कर दिया जायेगा। किन्तु इस अवसरके गम्भीर महत्त्वको देखते हुए ट्रान्सवालके सम्पूर्ण भारतीयोंकी राय जान लेना और इस प्रश्नपर विचार कर लेना उचित समझा गया कि यदि सरकारने हमें सन्तुष्ट करनेसे इनकार कर दिया था वह उसमें असमर्थ रही तो क्या कदम उठाया जाये।

विधेयक यदि वर्तमान रूपमें ही कानून बना दिया गया तो हमारी स्थिति १९०६ में संघर्ष आरम्भ करनेके पूर्वकी स्थितिसे भी बुरी हो जायेगी । यह स्थिति ऐसी होगी जिसको हम एक आत्म-सम्मानी जातिके नाते कभी स्वीकार नहीं कर सकते । इसके अतिरिक्त आप यह भी देखेंगे कि यह न केवल बालिग लोगोंके उन अधिकारोंको गम्भीर रूपसे क्षति पहुँचाता है, जिनका वे अबतक उपभोग करते रहे हैं, बल्कि स्त्रियों और बच्चोंके ऐसे अधिकारोंको भी हानि पहुँचाता है। यह अमीरों और गरीबों सबको समान रूपसे प्रभावित करता है। जनरल बोयाकी इस घोषणाके बावजूद कि सरकारका दक्षिण आफ्रिका में बसे हुए भारतीयोंको तंग करनेका कोई इरादा नहीं है, यह दक्षिण आफ्रिकाके अधिवासी भारतीयोंके अधिकारोंको भी छीन लेता है । जो विधेयक स्वयं हमारे अस्तित्वकी जड़पर ही आघात करता है, उसका सम्बन्धित व्यक्तियोंको हर कीमतपर विरोध करना चाहिए।

संसद में हमें प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है, यद्यपि उसकी सार-सँभालके खर्च में हम भी हाथ बँटाते हैं । अब ऐसे लोगोंके लिए अपनी शिकायतें दूर करानेका एक ही तरीका है, वह है सत्याग्रह । और चूँकि हमें सत्याग्रहका पर्याप्त अनुभव प्राप्त है, इसलिए हम अपनी शक्ति और दुर्बलताओंको परखनेकी स्थिति में भी हैं और अपनी समस्याके समाधानके रूपमें सत्याग्रहका मूल्य आँकनेकी स्थितिमें भी हैं। परन्तु साथ हो मैंने यह भी देखा कि संघर्षकी चार वर्षोंकी सुदीर्घं अवधिके अन्तिम दिनों में उस चीजको झेलनेके लिए, जो तब लगभग अनन्त कारावास-सी प्रतीत होती थी, अपेक्षाकृत कम लोगोंका ही एक दल तैयार था; किन्तु यह दल मुख्यतः उत्साही और दुर्दमनीय लोगोंका दल था, और उन्हीं लोगोंके कष्टसहनके परिणाम- स्वरूप वह चीज सम्भव हो सकी जिसे अस्थायी समझौता कहा जाता है। इसे “अस्थायी " इसलिए कहा गया कि यद्यपि इसकी रूसे हमें वह सब-कुछ प्राप्त हो गया जिसके लिए हम लड़ रहे थे, किन्तु इसे कानूनी रूप देकर पक्का नहीं किया गया था। वर्तमान विधेयकसे यही अपेक्षा की जाती है कि उसमें उस समझौतेका समावेश होगा; किन्तु जैसा कि आपने अपनी समिति द्वारा तैयार किये गये आपत्ति-पत्र में देखा है, उसमें ऐसा कुछ नहीं किया गया है। अब हम सरकारसे अनुनय-विनय कर रहे हैं और जबतक आशा है तबतक ऐसा करते रहेंगे; किन्तु, जब कोई उपाय शेष नहीं रह जायेगा तो यह स्पष्ट है कि जिस उपायका अवलम्बन करनेसे अस्थायी समझौता सम्भव हो पाया, अन्तमें इस समझौते में समाहित वादोंको कानूनो मान्यता दिलानेके लिए भी उसी उपायका अवलम्बन करना पड़ेगा।