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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पत्नीका पूरा भार उठानेको बाध्य है। फिर भी यदि " पत्नियों " के रूपमें ऐसी स्त्रियोंको दाखिल कर लिया जाये जिन्हें पति अगले ही दिन पत्नी माननेसे कानूनी तौरपर इनकार कर सकता हो, और इस देश में वह किसी अन्यके साथ वैध रूपमें विवाह कर ले, अथवा वह ऐसा न करे तो भी, वैसी स्थितिमें मुझे लगता है कि पत्नीके हकमें दी जानेवाली छूटका उद्देश्य पूरा नहीं होता। कानून तो सामान्यतः समपर लागू होता है; इसे केवल एशिवाइयोंके लिए, या मुख्यतः उन्हींके लिए नहीं बनाया गया है, हालाँकि एशियाई शब्दका उल्लेख प्रसंगवश उसमें किया गया है। फिर भी सभी एशियाई बहुपत्नीक विवाह नहीं करते । ऐसा कहा जाता है कि हर सूरतमें किसी एक मुसलमान दम्पतीकी एक “पत्नी” को प्रवेश करने देना चाहिए, और मैं यह नहीं जानता कि वह पत्नी कौन हो - वह जो इस देश में पहले आये या वह जो सबसे पहले ब्याही गई थी; लेकिन ऐसा कहा जाता है कि उन्हें अन्यथा बहुत कठिनाई होगी और शायद अनैतिकताको प्रोत्साहन मिलेगा । ये मसले विधानमण्डलके तय करनेके हैं, हालाँकि मैं यह नहीं मानता कि प्रतिवादीने अधिनियमकी जो व्याख्या मानी है उसके लाजिमी तौरपर ऐसे परिणाम होंगे। प्रान्तमें ऐसे किसी मामलेपर कोई अदालती निर्णय कभी नहीं हुआ है, लेकिन ट्रान्सवालमें हाल ही में हुए एक निर्णयसे प्रकट हुआ कि न्यायाधीशों में इस प्रश्नपर मतभेद है । ट्रान्सवालका कानून १९०६ के अधिनियम ३० जैसा ही है, और वहाँकी अदालत द्वारा बहुमतसे किये गये निर्णयसे मैं सहमत हूँ। यह कोई ऐसा मामला नहीं है जिसमें किसी अन्य देशके निवासियोंके विवाहकी महज धार्मिक रीति इस देशमें आवश्यक समझी जानेवाली रीतियोंसे भिन्न हो; ऐसे मामलोंमें ठीक ही है कि उनपर कानूनी आपत्ति नहीं उठाई जा सकती थी। लेकिन यह तो एक ऐसा मामला है जिसमें स्वयं वादीके अनुसार, वैध विवाह सम्बन्धके बुनियादी और अनिवार्थं तत्त्वोंका ही अभाव है जैसा कि प्रतिवादी पक्षने कहा है, जब इस उपनिवेशके विधान मण्डलका इरादा "पत्नी" शब्दकी इतनी व्यापक व्याख्या करनेका था जिसमें ख्यात पत्नी भी शामिल हो तब अधिनियममें वैसा स्पष्ट कर दिया गया था । यहाँ सिद्ध करनेकी जिम्मेदारी प्रार्थीपर है और मुझे लगता है कि उसने उसे पूरा नहीं किया है। अत: प्रार्थना स्वीकार नहीं की जा सकती । ऐसा सुझाव दिया गया था कि अदालत कह दे कि यदि प्रार्थी १८६० के अधिनियम १३ के अन्तर्गत अपने विवाहको वैध कराना स्वीकार कर ले तो बाई मरियमको जहाजसे उतरनेकी अनुमति दे दी जाये, लेकिन यह बात ऐसी नहीं है जिसमें अदालत हस्तक्षेप करे । तथापि यदि मन्त्री महोदय ऐसा आदेश दें तो मुझे उसमें कोई आपत्तिजनक बात नहीं लगती। मैं यह भी नहीं जानता कि इस समय ऐसी कानून-रचनाके लिए कोई तन्त्र है भी या नहीं। चूँकि खर्चेके लिए आग्रह नहीं किया गया है इसलिए खर्चे के विषय में कोई आशा नहीं दी जा रही है।

[ अंग्रेजीसे ]

इंडियन ओपिनियन, २१-६-१९१३