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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इसलिए मेरा संघ आशा करता है कि सरकार कृपा करके इस मामलेमें समाजकी भावनाओंका विचार करेगी और न्यायमूर्ति सलंके अप्रत्याशित फैसलेसे जो अनर्थ हो गया है, उसका परिमार्जन करनेके लिए नये प्रवासी विधेयकको प्रस्तुत करनेके अवसरका लाभ उठायेगी।[१]

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १९-४-१९१३

२०. तार : गृह-मन्त्रीको

[फीनिक्स]
अप्रैल १५, १९१३

गृह-मन्त्री

मुकम्मल जवाबके[२] लिए सरकारका शुक्रिया। मगर उत्तर असन्तोषजनक । बोडोंके बारेमें अभीतक समाजका अनुभव बिलकुल खराब। सर्वोच्च न्यायालय जानेके अधिकारको हम बहुत महत्त्व देते हैं। पिछले दोनों विधेयकोंमें फ्री स्टेटमें प्रवेशका अधिकार सिद्धान्ततः मान्य किया गया था। चाहे खण्ड चारका उपखण्ड तीन सुविधाजनक भी हो, वह अमलमें मौजूदा कानूनका स्पष्टतः परित्याग है। वर्तमान नेटाल प्रवासी अधिनियममें तीन सालके निवासको अधिवासके बराबर गया है। नेटालके बारेमें ऐसी धाराको कायम रखनेसे कोई नया अधिकार नहीं मिल सकता। नेटालमें कोई भारतीय कितने ही वर्ष तक बाहर रहे, किन्तु यदि वह अपने पूर्व-अधिवासको नेटाल अधिनियममें की गई उदार व्याख्याके अनुसार सिद्ध कर सके तो वह कानूनन फिर प्रविष्ट हो सकता है। अस्थायी समझौतेका मन्शा यह कभी नहीं था कि यदि नये विधेयकसे यूरोपीयोंके अधिकार कम किये जा सकते है तो भारतीयोंके अधिकार भी किये जा सकते हैं। असलमें यूरोपीयोंकी बहुत बड़ी संख्या इस व्यवस्थासे प्रभावित नहीं होती; किन्तु इससे तीन सालसे ज्यादा बाहर रहनेवाले प्रत्येक भारतीयके निवासके अधिकार निश्चय ही चले जायेंगे।

  1. १. गृह-सचिवने ९ मईको इस पत्रका उत्तर देते हुए गांधीजीको सूचित किया था कि ऐसा कोई कानून बनाना यूरोपीय सभ्यताके सिद्धान्तोंके विरुद्ध होगा, जिसके द्वारा एक पुरुषको कई स्त्रियोंसे विवाह करनेकी अनुमति देनेवाली विवाह पद्धति मान्य हो और जिसके कारण दक्षिण आफ्रिकामें किसी भी प्रकारसे रोमन-डच कानूनके अन्तर्गत सम्पन्न वैध विवाहोंकी वर्तमान स्थिति बदलती हो । गृह-मन्त्रीने अपने इस कथनके सम्बन्धमें कि सर्लने अपने निर्णयमें जो-कुछ कहा है वह स्थिति तो दक्षिण आफ्रिकामें वर्षोंसे मौजूद है, गांधीजीकी शंकाका समाधान करते हुए केपकी अदालतके १८६० के निर्णय और उसी साल पास किये गये एक कानूनका हवाला भी दिया था ।
  2. २. देखिए परिशिष्ट ३ ।