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१९. पत्र: गृह-सचिवको[१]

अप्रैल १४, १९१३

न्यायमूर्ति श्री सर्लके के हालके फैसलेके बारेमें मेरे इसी २ तारीखके तारके[२] उत्तर-में आपका ५ तारीखका पत्र प्राप्त हुआ।

निवेदन है कि न्यायमूर्ति श्री सर्लके फैसलेसे पहले हमारे समाजके सम्मुख यह बात कभी स्पष्ट नहीं हुई थी कि गैर-ईसाई लोगोंके जो विवाह दक्षिण आफ्रिकामें पंजीकृत नहीं हुए हैं वे दक्षिण आफ्रिकाकी अदालतों द्वारा मान्य नहीं किये जायेंगे। न्यायमूर्ति श्री वेसेल्सका फैसला,[३]जो कुछ समय पहले दिया गया था, ऐसे फैसलेसे बहुत-कुछ मिलता-जुलता था; किन्तु उसका सम्बन्ध भारतके विविध महान धर्मोके रीति-रिवाजोंके अनुसार सम्पन्न विवाहोंकी अपेक्षा बहुविवाहोंकी वैधता अथवा अवैधता से अधिक था। जैसा कि माननीय मन्त्रीने देखा होगा, न्यायमूर्ति सर्लका फैसला किसी नजीरपर आधारित नहीं है। उनके सामने पेश मुकदमा परीक्षणात्मक माना गया था और विवाह कानूनके सम्बन्धमें उनका यह फैसला बिलकुल नया है।

इसके अतिरिक्त, अबतक हिन्दू, मुसलमान और पारसी विवाहोंपर आपत्ति नहीं की गई और कई डिवीजनोंके प्रधान अधिकारी (मास्टर) उनको मान्य करते रहे हैं। किन्तु मुझे मालूम हुआ है कि जबसे उक्त फैसला दिया गया है, नेटाल प्रान्तीय डिवीजनके प्रधान अधिकारीने एक मृत मुसलमानकी जायदादपर उसकी विधवा पत्नीके उत्तराधिकारके सम्बन्धमें मुसलमानी विवाहोंकी वैधतापर आपत्ति की है।[४]

मेरा संघ सरकारके प्रति इस आश्वासनके लिए कृतज्ञ है कि सरकार कानूनको कड़े या मनमाने तरीकेसे लागू करना नहीं चाहती; किन्तु उक्त फैसलेको ध्यानमें रखते हुए मैं आशा करता हूँ कि सरकार समाजके उस रुखको समझ लेगी जो सभामें इस आश्वासनको स्थितिको आवश्यकताकी पूर्तिके लिए काफी न मानकर व्यक्त किया गया है। अब कानूनकी निगाहमें गैर-ईसाई भारतीय पत्नियाँ पत्नियाँ नहीं हैं। बल्कि रखैल हैं। मुझे विश्वास है कि यदि भारतीय समाज' भारतीय पत्नियोंके दर्जेको इतने अपमानजनक रूपसे हीन बना देनेपर रोष प्रकट करता है और वह रुष्ट तो हुआ है तो सरकार इस मनःस्थितिको समझेगी। जैसा कि हम बता चुके हैं, इस फैसलेके कानूनी नतीजे, जिन्हें हमारी समझ में प्रशासकीय कार्रवाईसे दुरुस्त करना सरकारके अधिकारमें नहीं है, इतने गम्भीर हैं कि उनको ध्यानमें रखकर कानूनमें परिवर्तन करना वांछनीय है।

  1. १. इस पत्र पर अ० मु० काछलियाके हस्ताक्षर थे।
  2. २. यह उपलब्ध नहीं है।
  3. ३.देखिए खण्ड ११, पृष्ठ २३९-४० तथा २५८-५९ ।
  4. ४. देखिए " जनूबीका मामला", पृष्ठ १८-१९ ।