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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मुझे तुम्हारे बागबानीके कामसे ईर्ष्या होती है। अभी तो मेरा स्वास्थ्य खराब हो गया लगता है। मैं महसूस करता हूँ कि उपवासके बाद मैंने शरीरको बिलकुल चिन्ता नहीं की। मैं अपनी खोई शक्तिको वापस पानेकी जल्दी में था। इसलिए मैंने शरीरको जरूरतसे ज्यादा खुराक दी और इतनी दूर-दूर तक घूमने जाता रहा कि शरीर थक जाता था; इस तरह मैंने शारीरिक कार्य प्रणालीपर जरूरतसे ज्यादा बोझ डाला । अब इस अत्यधिक अधीरताका दण्ड भुगत रहा हूँ। मैं जरा भी तेजीसे नहीं चल सकता क्योंकि उससे मूल दर्द उठ आता है। हड्डियाँ तो लगता है जैसे टूट गई हों। हड्डियाँ और जोड़ कोई बोझ बर्दाश्त नहीं कर पाते। इसलिए मैं अधिकतर घर रहने और बिस्तरपर पड़ा रहने के लिए मजबूर हूँ । खाना मैं बहुत कम खा पाता हूँ. जरा-सी ज्यादतीसे गड़बड़ हो जाती है। किन्तु फिर भी मैं अपना काम देख सकता हूँ। इस सबका यह अर्थ भी नहीं है कि मैं केवल अस्थि-पंजर रह गया हूँ | थोड़ा ध्यान देनेसे जो खराबी आ गई है उसे दूर कर पाऊँगा । मानसिक और नैतिक वातावरण भी बहुत हद तक बाधक हो रहे हैं। यहाँ हर चीज इतनी बनावटी, इतनी भौतिकतावादी और अनैतिक दिखाई देती है कि व्यक्तिकी आत्मा लगभग जड़ हो जाती है।

भारत जानेकी मेरी तीव्र इच्छा है और श्रीमती गांधीकी भी, परन्तु एक कर्त्तव्य- भावना मुझे यहाँ रहने को मजबूर करती है; और मैं कह नहीं सकता कि इस अवसर- पर यह सही कर्त्तव्य-भावना है या नहीं।

युद्धके सम्बन्ध में मैं तुम्हारे विचारोंसे सहमत हूँ । यदि मुझमें नैतिक बल होता तो मैं निश्चय हो वैसा सत्याग्रह करता जिसका चित्र तुमने अपने पत्र में प्रस्तुत किया है।

मुझे प्रसन्नता है कि तुम सब वहाँ सानन्द हो और बच्चे वहाँ अच्छी तरह हैं तथा तुम्हारे जीवनके आनन्दको बढ़ा रहे हैं। मैं आशा करता हूँ कि सभी कुछ वहाँ शान्तिपूर्वक चल रहा होगा।

सबको हम लोगों की याद दिला देना। शायद मैं इस सप्ताह दूसरा पत्र न लिखूं; इसलिए यह पत्र सबको दिखा देना।

तुमको यह जानकर हर्ष होगा कि यह पत्र एक भारतीय मित्रको बोलकर लिखवा रहा हूँ । जेम्सके बाद यह प्रथम भारतीय मित्र हैं जिन्हें मैंने शीघ्रलिपिमें लिखने में समर्थ पाया है। अभी वे मेरे साथ इसी घरमे हैं; और किसी ऐसे अस्पतालमें, जहाँ हमारी भारतीय फौजें हों, जानेके निर्देशकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। उनका नाम मानिकलाल चन्द्र है। वे लगभग चार वर्ष इंग्लैंडमें रहे हैं। जहाँतक मैं जानता हूँ श्री चन्द्र खूब घूमे-फिरे व्यक्ति हैं।

मैं पोलकको लिखनेकी कोशिश करूंगा। परन्तु शायद न भी लिख पाऊँ इसलिए तुम यह पत्र तो उन्हें दिखा ही देना।

तुम्हारा,

मो० क० गांधी

गांधीजीके स्वाक्षरों में मूल अंग्रेजी प्रति (सी० डब्ल्यू० ४४१६) की फोटो-नकलसे।

सौजन्य : ए० एच० वेस्ट