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पत्र : प्रागजी देसाईको

ज्यादा है। मेरा अपना उपचार ही अनुकूल पड़ा है। हम घरमें भारतीय रहन-सहनको बनाये हुए हैं। फर्शपर ही भोजन करते और सोते हैं। अपना भोजन हाथसे बना लेते हैं। मैं सबसे अपनी ही पोशाक में मिलता हूँ। बाहर जाते समय अंग्रेजो लिबास पहनना पड़ता है।

ऐसा लगता है कि मुझे [यहाँ] तीन महीने लगेंगे ही। भाई सोराबजी आदि रोगियों की सार-सँभाल करनेके लिए पहुँच गये हैं। यह सम्भव है कि मेरा जाना अगले हफ्ते हो।

आदरणीय खुशालभाई और देवभाभीको मेरा दण्डवत् कहना। रलियातबेन तथा गंगाभाभीको भी कहना और कहना कि मैं उनके दर्शन करनेके लिए अधीर हो रहा हूँ। मुझे पूरा समाचार देना।

बापूके आशीर्वाद

गांवोजीके स्वाक्षरों में मूल गुजराती प्रति (सी० डब्ल्यू० ५६८८) से।

सौजन्य : नारणदास गांधी


४१४. पत्र : प्रागजी देसाईको

लन्दन

कार्तिक वदी १२, [ नवम्बर १५, १९१४]

भाई श्री ५ प्रागजी,

आपका पत्र मिला। आपको जो सन्देह होता है, वह समझा जा सकता है। मैंने आपके प्रश्नोंका उत्तर किसी औरको भी दिया है, फिर भी दुबारा लिखनेका प्रयत्न करता हूँ। यह बात निर्विवाद है कि सत्याग्रही प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूपसे युद्धको प्रोत्साहन नहीं दे सकता। मैं वैसा शुद्ध सत्याग्रही नहीं हूँ। वैसा बननेका प्रयत्न करता हु । इस बीच जितनी दूर तक पहुँचा जाये उतनी दूर तक उसे [ सत्याग्रहीको ] पहुँचना चाहिए। मैं यहाँ आया और युद्ध आरम्भ हो गया। मैं कुछ दिन तक अपने कर्त्तव्यका विचार करता रहा। मैं इंग्लैंडमें चुपचाप रहूँ तो भी यह मुझे भाग लेने के समान जान पड़ा। इस द्वीपकी रक्षा यदि नौ-सेना न करती होती तो लोग भूखों मरते और जर्मनोंके हाथमें पड़ जाते, यह बात स्पष्ट दिखाई पड़ी। इससे मुझे लगा कि मैंने युद्धको अप्रत्यक्ष रूपसे उत्तेजन दिया। सत्याग्रहीके रूपमें मेरा कर्त्तव्य यह था कि मुझे ऐसे स्थानपर चला जाना चाहिए था जहाँ मुझे नौ-सेनाके संरक्षणकी आवश्यकता न हो और उसके द्वारा रक्षित भोजनके बिना निर्वाह हो सके। ऐसा स्थान यहाँके पर्वत हैं । वहाँ किसीका संरक्षण नहीं माना जा सकता। जर्मन मुझे [पकड़कर ] ले जायें तो भी ठीक। मैं पहाड़पर जो फल-फूलादि होते हैं अथवा [वहाँ] उगनेवाली घास और पत्तों- पर अपना निर्वाह करूँ। उस भोजनकी रक्षा नौ-सेना नहीं करती लेकिन इस परिस्थितिके

१. देखिए “ पत्र : मगनलाल गांधीको ", पृष्ठ ५२२-२४।

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