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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जब हम लोग गत नवम्बर में मैदानोंसे कूच करते हुए जा रहे थे तो यूरोपीयोंने हमारी मदद की। किसी दूसरे अवसरपर मैं बता चुका हूँ कि दक्षिण आफ्रिका में भारतीयों के प्रति बड़ा दुर्भाव था । उसमें न तो कोई समझदारी थी, और न कोई समझनेके लिए तैयार ही था । परन्तु सामान्य जनता इस दुर्भावसे अलिप्त रही। उसकी ओर से हमें कोई चिन्ता नहीं थी। हमारे कूचके दरमियान वह बराबर हमारी मदद करती रही और अपने व्यवहारमें ठोस ढंग से सहानुभूति प्रकट करती रही।

बोयाकी सरकारने भी ईमानदारी के साथ काम किया। जनरल स्मट्सने मुझे कहा-- "हम नहीं चाहते कि किसी किस्मकी गलतफहमी हो । सब अपनी-अपनी बातें साफ-साफ बता दें । ये दस्तावेज लीजिए। इन्हें पढ़ जाइए। और अगर आपको कहीं जरा-सा भी असन्तोष हो तो जितनी बार चाहें मेरे पास आइए। हम उनमें आवश्यक संशोधन कर लेंगे।" और उन्होंने ऐसा ही किया।

इस प्रकार आप देख सकते हैं कि समझौता करने में कितनी ही चीजें कारण बनीं। परन्तु एक और कारण मुझे बता देना चाहिए-- श्री ऐंड्रयूज़; उन्होंने जो कुछ किया उसकी आप कल्पना नहीं कर सकते। कितने निःस्वार्थ भावसे और उत्साहके साथ उन्होंने काम किया। अपने गुरु, बोलपुरके कवि और संत - रवीन्द्रनाथ ठाकुर – के द्वारा भारतके प्रति प्रेमका वे अनवरत प्रचार कर रहे थे। कविका परिचय तो मुझे श्री ऐंड्रयूज़की मार्फत ही हुआ है ।

मैंने इस समझौतेको दक्षिण आफ्रिकाके ब्रिटिश भारतीयोंका "मेग्ना कार्टा" (महाधिकार-पत्र) कहा है। इसे बहुत विचारपूर्वक मैं फिर दोहराना चाहता हूँ । उसके अन्दर बहुत बड़ी बातें हैं । परन्तु इन बड़ी बातोंके कारण ही वह ब्रिटिश भारतीयोंका 'मेग्ना कार्टा' नहीं है, बल्कि उसकी उस भावनाके कारण है जो दक्षिण आफ्रिका और उसको सरकारके रुखमें जबर्दस्त परिवर्तन प्रकट करती है। हमारे देश- भाइयोंके कष्ट सहनने उस समझौतेपर मुहर लगा दी है। हम लोगोंको लगा कि भारतके पुराने बलका प्रयोग दक्षिण आफ्रिका में किया जा सकता है। और आठ वर्षके लम्बे कष्टोंने हमें उसकी अमोधताका निश्चय करा दिया। सरकारने देख लिया कि भारतीय जनता जब किसी चीजको मनमें धार लेती है तो दुर्धर्ष हो जाती है, और यह भी कि अपनी कमसे-कम पेश की गई माँगों में कोई तिल-भर भी कम करना चाहे तो वह उसे स्वीकार नहीं करेगी।

श्री कार्टराइट यहीं हैं। वे शुरूसे हमारे पक्के हितैषी रहे हैं। और उन्होंने हमारी जो मदद की है उसके लिए मैं उनका बहुत आदर करता हूँ। परन्तु मैं यहाँ उनसे कहूँगा कि उन्होंने हमें लगभग कमजोर करनेका यत्न किया। मुझे याद है, और उन्हें भी याद होगा कि किस तरह वे जोहानिसबर्ग जेलमें मेरे पास आये और कहने लगे- क्या इस पत्रसे काम नहीं चल सकता ? " तब मैंने उनसे कहा - "नहीं, श्री कार्टराइट, जबतक इतना फेरफार नहीं कर लिया जाता तबतक नहीं। श्री कार्टराइटने फिर समझाया कि " 'समझौतेकी वृत्ति रखने से सब-कुछ मिल जाता है।" मैंने कहा, "सिद्धान्तों में समझौता नहीं हो सकता।" और सन् १९०६से लेकर १९१४ तक सिद्धान्तों में कभी समझौता नहीं किया गया ।