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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

तुम्हें मैंने बचपनसे ही अपने पास रखा है। न जाने किसी दैवी प्रेरणाके कारण ही मेरी नजर तुमपर पड़ी। और तुमने मुझे अभीतक तो निराश नहीं किया है। मैं प्रभुसे यही याचना करता हूँ कि तुम्हारे कारण मुझे कभी निराशा न हो । पाँचों यमोंका आजीवन पालन करना।

फीनिक्स में सभीका प्रेम सम्पादन करना। इसीमें दया-धर्म निहित है। दयाका अर्थ अत्यन्त गूढ़ है, इसपर विचार करना । 'योग दीप' अभी-अभी पढ़कर समाप्त किया है। इसमें पढ़ा कि आत्माके अनुकूल कार्य किये जायें तो वह उन्नत होती और विपरीत कार्योंसे पतित होती है। 'स्वधर्म' की यह व्याख्या अधिक ठीक जँचती है। लिखता ही जाऊँ ऐसी तबीयत हो रही है पर अपने कार्यक्रमको देखते हुए इतना समय नहीं है। खैर, तुम ऊपर व्यक्त विचारोंको [ मनन करके] खूब विकसित करना ।

यह पत्र तुम तीनों ही पढ़ जाना। भाई रावजी और प्रागजीको इसीलिए संक्षेपमें लिखकर सन्तोष मानूंगा।

मोहनदासके आशीर्वाद

गांधीजी के स्वाक्षरों में मूल गुजराती प्रति (एस० एन० ६०४८) की फोटो-नकलसे ।

३८३. पत्र : रावजीभाई पटेलको

[ लन्दन ]

श्रावण सुदी ७, १९७० [जुलाई २९, १९१४]

प्रिय श्री रावजीभाई,

आपका स्नेह भुलाया नहीं जाता। आपने बा को जीत लिया यह तो मेरी समझमें महाभारत जीत लेनेके समान हो गया। मैं अनुभव करता हूँ कि बा ने अपने स्वभावमें बहुत परिवर्तन कर लिया है।

तुमने जो व्रत लिये हैं उनपर दृढ़ रहना, जोंककी तरह उनसे चिपके रहना, फिर तुम म [ णि भाई ] को अवश्य जीत लोगे, सारे जगत्को जीत लोगे और स्वयं स्वराज्य प्राप्त करके हिन्द-स्वराज्य भी प्राप्त कर सकोगे। हमारा धर्म ही कुछ ऐसा दिव्य है। उसमें समग्र विजयकी एक ही कुंजी है। हमारा यह धर्म इतना प्रौढ़ है कि इसकी सरलता और इसकी विषमताका कोई पार नहीं है।

हम लोग जिस सादगीसे रहते थे उसमें और वृद्धि करना । जबतक मैं वहाँ था, तुम मुक्त थे । अब कैदमें हो यही समझना। स्वादेन्द्रिय [ की माँगों ] को व्यापक मत बनने देना। यह मत सोचना कि यह लिया ही जा सकता है और वह भी लिया जा सकता है; बल्कि यों सोचना कि एक यह उपाधि तो छूटी अब दूसरीसे पिण्ड छुड़ाना

१. " स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावह " -- गीता ।

२. देखिए अगला शीर्षक ।

३. यह पत्र उपलब्ध नहीं है ।