[ जहाजपर]
श्रावण सुदी ६ [जुलाई २८, १९१४]
चि० छगनलाल,
नायककी तरफ जो रकम है उसके सम्बन्ध में उसे लिखते रहना। इसमें मोती- लालकी मदद भी लेना । नायकको मैं भी लिख रहा हूँ ।
यह पत्र शुरू तो आज कर रहा हूँ। ऊपरकी बात तो इसलिए लिख छोड़ी थी कि भूल न जाऊँ । हम तीनोंकी ही तबीयत अच्छी चल रही हैं । बा तो आशा- तीत [परहेज ] कर रही है। खाने-पीनेके मामलेमें जरा भी तकलीफ नहीं देती। गेहूँ का उपयोग तो बहुत ही थोड़ा करती है। वह विशेष रूपसे कच्चे केले, भापसे पकाई हुई फलियाँ तथा दूधपर ही रह रही है। वहाँसे गेहूँकी जो बाटियाँ साथ लाये थे उनके खत्म हो जानेपर वह गेहूँ भी छोड़ देनेको कहती है। मैं घंटा-भर श्री कैलेनबैकको गुजराती सिखाता हूँ। और एक घंटा यानी सायंकाल ७ बजे बा को गीताका अर्थ और रामायण सुनाता हूँ। दोनों ही वह बड़े प्रेमसे सुनती है। तीसरे दर्जेकी असुविधाएँ तो मुझे दिखाई ही नहीं देतीं। हाँ, सुविधाएँ बहुतेरी नजर आती हैं। हम लोगोंका दूसरे मुसाफिरोंसे सम्पर्क नहीं है इसलिए समय बहुत बचता है। हमने अपना दैनिक कार्यक्रम निश्चित कर लिया है; इसके कारण सब कुछ नियमित चलता है। सब प्रकारका मेवा कम्पनीने ले ही रखा है सो केला, नारंगी आदि फल खूब मिल जाते हैं । कम्पनी बादाम आदिकी जरूरत भी पूरी करती है। और जो कुछ पकाना होता है वह श्री कैलेनबैक करते हैं ।
देश जानेवाला दल निकल चुका होगा अतः उनमेसे किसीको कुछ नहीं लिख रहा हूँ।
इस बार अलग होनेका दुःख बहुत अधिक महसूस हो रहा है। फीनिक्समें मैंने बड़ा स्नेह अनुभव किया है। “अँसुवन जल सींच-सींच प्रेम बेल बोई" – अपने निजी अनुभवसे मैं यही उद्गार अभिव्यक्त कर सकता हूँ; मैं इसके बड़े मीठे फल चख पाया हूँ ।
लेखादि काफी भेज रहा हूँ फिर भी सभी नहीं भेज पाया हूँ, यह तो तुमने देख ही लिया होगा। दूसरी किस्त मदीरा छोड़नेके बाद लिखूंगा और इसलिए वह साउदैम्प्टन से रवाना की जा सकेगी। सामग्रीकी कमी नहीं होने देनेकी उम्मीद करता हूँ ।
१. प्रथम अनुच्छेदको छोड़कर यह पत्र जुलाई २७ को लिखा गया था।
२. श्री कैलेनबैंक, कस्तूरबा और गांधीजी।
३. फीनिक्ससे २५ विद्यार्थियोंका एक दल, जिसमें मगनलाल गांधी और कुछ शिक्षक भी थे, अगस्त १९१४ को भारतके लिए रवाना हुआ था। इन्हें महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुरकी संस्था शान्तिनिकेतनमें भर्ती होना था ।