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अन्तिम सत्याग्रह संघर्ष : मेरे अनुभव

सकते थे। हमारा खानोंके मालिकोंसे कोई बैर नहीं था। हड़तालका हेतु मालिकोंको दुःख देनेका नहीं था, बल्कि खुद ही दुःख उठानेका था। इसलिए खानोंके मालिकोंकी यह सलाह मान्य नहीं की जा सकती थी। मैं वापिस न्यू कैंसिल आया। मैंने उपरोक्त सभाका परिणाम लोगोंको बताया। उससे उनका उत्साह और ज्यादा बढ़ा। और अधिक खानोंमें काम बन्द हुआ।

आजतक मजदूर अपनी-अपनी खानों में रहते थे। न्यू कैंसिलकी व्यवस्थापक समिति इस निश्चयपर पहुँची कि जबतक गिरमिटिया अपने मालिककी जमीनमें रहते हैं, तबतक हड़तालका पूरा असर नहीं पड़ेगा। वे ललचाकर अथवा डरकर काम शुरू कर देंगे, ऐसी आशंका थी। और मालिकका काम न करना और फिर भी उसके घरमें रहना अथवा उसका नमक खाना - यह तो अनीति होगी। गिरमिटियोंका खानोंपर रहना दोषरूप था । यह अन्तिम दोष सत्याग्रहके शुद्ध प्रयासको मलिन करनेवाला मालूम हुआ । दूसरी ओर, हजारों भारतीयोंको कहाँ रखना, कहाँ खिलाना-पिलाना, यह बहुत बड़ी समस्या थी। श्री लाजरसका मकान अब बहुत छोटा मालूम हुआ। बेचारी दोनों स्त्रियाँ रात-दिन मेहनत करती थीं, लेकिन काम उनकी शक्तिके बाहर मालूम हुआ । इन सब कठिनाइयों के बावजूद चाहे जो जोखिम उठाकर भी सही चीज करनेका निश्चय हुआ। गिरमिटियों को अपनी खान छोड़कर न्यू कैंसिल आनेका सन्देशा भेजा गया। ज्यों ही यह खबर पहुँची त्यों ही खानों में से भारतीय मजदूरोंकी कूच शुरू हो गई। बेलंगीकी खानोंके भारतीय सबसे पहले पहुँचे । न्यू कैंसिल में सदा मानो तीर्थयात्रियोंका संघ चला आ रहा हो, ऐसा दृश्य दिखाई देता था। जवान, बूढ़े और स्त्रियाँ - कोई खाली और कोई गोदमें बच्चा लिए हुए - सब अपने सिरपर पोटलियाँ उठाये चले आ रहे थे। पुरुषोंके सिरपर सन्दूक दिखाई देते थे। कोई दिनमें आते तो कोई रातको आ पहुँचते। उन सबके लिए भोजनका प्रबन्ध करना पड़ता था। इन गरीब लोगोंके सन्तोषका मैं क्या वर्णन करूँ ? जो मिल जाये उसीमें वे सुख मानते थे। शायद ही कोई रोता दिखता था। सबके चेहरों- पर हँसी की छटा दिखाई पड़ती थी। मेरे लिए तो वे तैंतीस कोटि देवताओं में से थे । स्त्रियाँ देवीरूप थीं। उन सबको ठहरानेके लिए सिरपर छप्पर तो कहाँसे दिया जाता ? सोनेके लिए घासकी चटाइयाँ थीं। छप्पर आकाशका था। रक्षक उनका ईश्वर था । एक भाईने बीड़ीकी माँग की। मैंने समझाया कि वे गिरमिटियोंकी तरह नहीं, हिन्दु- स्तानके सेवकोंकी तरह निकले हैं। वे एक धर्म-युद्ध में हिस्सा ले रहे हैं; ऐसे समय शराब, तम्बाकू इत्यादि व्यसन उन्हें छोड़ने चाहिए। और जो न छोड़ सकें उन्हें अपनी ऐसी जरूरतों की पूर्ति सार्वजनिक पैसेसे होनेकी आशा नहीं करनी चाहिए। इन साधु पुरुषोंने मेरी यह सलाह मान ली और बादमें किसीने भी बीड़ीके लिए पैसेकी माँग मुझसे नहीं की। इस तरह खानोंसे हिन्दुस्तानी मजदूरोंकी कतारें निकलना शुरू हुईं। उनमे से एक गर्भवती स्त्रीको रास्ते में ही गर्भपात हो गया। ऐसे अनेक दुःख उन्होंने उठाये। लेकिन न तो कोई थका और न कोई पीछे हटा।

न्यूकैसिलम हिन्दुस्तानियोंकी संख्या बहुत बढ़ गई । हिन्दुस्तानियोंके पास जितनी भी जगह थी सब भर गई। उनसे जो भी घर-मकान आदि मिले, उनमें स्त्रियाँ और वृद्ध ठहरा दिये गये । यहाँपर कहना चाहिए कि न्यू कैंसिलके गोरे नागरिकोंने इस मौकेपर