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३८१. अन्तिम सत्याग्रह संघर्ष : मेरे अनुभव'

[जुलाई २३, १९१४ के बाद ]

अन्तिम लड़ाई हुए काफी दिन हो गये। उसके अनुभवोंको लिखनेका मुझे समय ही नहीं मिला। अपने इन अनुभवोंका लाभ 'इंडियन ओपिनियन' के पाठक-वर्गको देना तो था । पाठकोंको याद रखना चाहिए कि आखिरी लड़ाई सत्याग्रहका तीसरा प्रकरण थी। पहला प्रकरण खत्म हुआ तब हमने- मैंने तो अवश्य ही - उसे आखिरी माना था। जब दूसरा प्रकरण शुरू करनेका अवसर आया तब अनेक भाई मुझसे कहने लगे कि अब कौन लड़ेगा ? कौम बार-बार इतना जोर नहीं दिखा सकेगी। यह सुनकर मैं हँसा था। सत्यपर मेरी अचल आस्था थी। मैंने जवाब दिया: "लोगोंने एक बार उसका रस चख लिया है, इसलिए अब तो वे ज्यादा लड़ेंगे।" ऐसा ही हुआ भी। पहली बार सौ-दो-सौ हिन्दुस्तानी जेल गये। दूसरी बार सैकड़ों गये। इतना ही नहीं, नेटाल जागा और वहाँके अग्रणी व्यक्ति लड़ाई में भाग लेनेके लिए आये। लड़ाई बहुत लम्बी चली । फिर भी लोगोंका उत्साह कायम रहा और हम आगे बढ़े। आखिरी लड़ाई आई तब तो मैंने लोगोंको हारकी ही बातें करते हुए सुना । 'सरकार आपको बार-बार धोखा देती है और आप धोखा खाते हैं; ऐसी हालत में यह नहीं हो सकता कि लोग बार-बार नुकसान सहें । " ऐसे कड़वे वचन मुझे सुनने पड़ते थे। मैं खूब समझता था कि सरकारके धोखेके खिलाफ मेरा या किसीका भी कोई उपाय चल ही नहीं सकता था। हम प्रॉमिसरी नोट लिखवा लें, लेकिन यदि उसपर सही करनेवाला इनकार कर दे या अपना वचन तोड़ दे, तो उसमें लिखवानेवालेका क्या दोष ? मैं तो जानता था कि यदि सरकार वचन-भंग करेगी, तो जिस तरह हमें ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी, उसी तरह उसे भी पहलेसे ज्यादा देना पड़ेगा। कर्जदार कर्ज चुकाते समय जितना ज्यादा समय लगाता है उतना ही ज्यादा बोझ उसे उठाना पड़ता है। यह अचल कानून जिस तरह संसारी कर्जको लागू होता है, उसी तरह धार्मिक कर्जको भी लागू होता है। मैंने तो यह जवाब दिया कि "सत्याग्रहकी लड़ाई ऐसी है कि उसमें हारने या पछतानेकी कोई बात ही नहीं है। इस लड़ाईमें तो मनुष्य हमेशा अधिक बलवान ही बनता है। उसमें थकावट महसूस नहीं होती और हरएक मंजिलपर लड़नेवालेकी शक्ति बढ़ती

१. प्रस्तावना लेख तैयार कर चुकनेके बाद (देखिए पिछला शोर्षक) गांधीजीने जहाजसे यात्रा करते समय यह लेख लिखना शुरू किया था। दो या दोसे भी अधिक किस्तोंमें इसे छगनलाल गांधीको भेजा गया था। स्पष्टतः गांधीजीकी अस्वस्थता के कारण और लन्दन में “भारतीय आहत सहायक दल" से सम्बन्धित कार्यों में अत्यधिक व्यस्तताके कारण यह लेख पूरा नहीं किया जा सका था । छगनलाल गांधीने लेखके विभिन्न अंशोंको संकलित करके इंडियन ओपिनियनके स्वर्ण जयन्ती अंकमें प्रकाशित करनेके लिए तैयार किया था। इस विशेषांकमें इंडियन ओपिनियनके सम्पादक द्वारा लिखित 'दक्षिण आफ्रिकाका भारतीय संघर्ष और उसके प्रभाव ' का सिंहावलोकन भी प्रकाशित किया गया था। देखिए परिशिष्ट २८ ।