पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 12.pdf/५३४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४९४
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

प्रकट किया है। यदि उसी भावनासे वर्तमान कानूनोंका अमल किया गया तो मेरे देशबन्धुओंको पहले की अपेक्षा अधिक शान्ति मिलेगी और दक्षिण आफ्रिकामें भारतीय समस्याके ऐसे उग्र रूपके दर्शन नहीं होंगे।

मेरे कुछ देशभाइयोंने समझौतेका विरोध किया है। इन विरोधियोंकी संख्या बहुत कम है, और, प्रभावकी दृष्टिसे, वे बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। जो-कुछ दिया गया है वे उसका विरोध नहीं करते बल्कि उनकी आपत्ति यह है कि इतना पर्याप्त नहीं है। इसलिए उनके साथ सहानुभूति न हो, यह तो असम्भव है। मुझे उनसे बातें करनका अवसर मिला है और मैंने यह बतानेकी चेष्टा की है कि यदि हम इससे ज्यादा कुछ माँगते, तो पिछले सालके अन्तमें ब्रिटिश भारतीयोंकी ओरसे श्री काछलियाने सरकारको पत्र लिखकर जो-कुछ निवेदन किया था उसका भंग होता और तब हमपर यह आरोप लगाया जा सकता था कि हम नई मांगें पेश कर रहे हैं।

किन्तु मैंने उनको यह भी विश्वास दिलाया है कि वर्तमान समझौता उन्हें उन अन्य शिकायतोंको दूर करनेके लिए आन्दोलन करनेसे नहीं रोकता (जैसा कि पिछली १६ तारीखको लिखे अपने एक पत्रमें मैंने गृह-सचिवको स्पष्ट भी कर दिया है) जिनके कारण, स्वर्ण-कानून, कस्बा-अधिनियम, ट्रान्सवालके १८८५ के कानून तथा नेटाल तथा केपके व्यापारिक परवाना कानूनोंके अन्तर्गत, इस सुधारके बाद भी, हमारा समाज कष्ट पाता रहेगा। जनरल स्मट्सने मौजूदा कानूनोंपर न्यायपूर्वक और निहित हितोंका ध्यान रखते हुए अमल करनेका जो वादा किया है उससे हमारे समाजको जरा सांस लेनेका मौका मिल गया है। किन्तु ये कानून स्वयं अपने में ही त्रुटिपूर्ण हैं और उनको उत्पीड़नके यंत्र-रूपमें प्रयुक्त किया जा सकता है; जैसा कि पहले किया भी जाता रहा है। उन्हें अप्रत्यक्ष उपायों द्वारा ऐसे अस्त्रों के रूपमें परिवर्तित किया जा सकता है जिससे दक्षिण आफ्रिकाके अधिवासी भारतीय निकाल बाहर किये जायें। हमने नये प्रवासियोंके आव्रजनका प्रशासनिक उपायों द्वारा प्रायः पूर्ण निषेध किया जाना तथा सारी राज- नीतिक शक्ति से स्वयंका च्युत किया जाना स्वीकार करके जन-विद्वेषकी भावनाका आदर किया है; हमसे इससे अधिककी आशा नहीं की जानी चाहिए। दोनों बातें निश्चित हो जानेके बाद, मैं यह निवेदन करनेका साहस करता हूँ कि हम निकट भविष्य में व्यापार, अन्तर-प्रान्तीय आवागमन तथा भू-सम्पत्तिपर स्वामित्वके पूर्ण अधिकार पानेके हकदार हैं। मैं इस आशाके साथ दक्षिण आफ्रिका छोड़ रहा हूँ कि आज दक्षिण आफ्रिकाके यूरोपीय समाज में जो स्वस्थ प्रवृत्ति फैल रही है वह बनी रहेगी और इसके कारण यूरोपीयोंको हमारे निवेदनकी न्यायसंगतता स्वीकार करने में मदद मिलेगी। गत एक पखवारेमें मैंने जिन विविध सभाओंमें भाषण किये हैं उनमें से कई सभाओं में हजारों आदमी रहे हैं। अपने भाषणों में मैंने देशभाइयोंसे कहा है- 'समझौतेका " पोषण करो। देखो कि जो वादे किये गये हैं, उनका पालन किया जा रहा है। अन्दरसे वृद्धि और विकासकी चेष्टा करो। उन सब कारणोंको उत्साहपूर्वक दूर कर दो जिनसे भारत-विरोधी विद्वेष या आन्दोलनको उठने और बढ़नेका मौका मिलता हो, और यूरोपीय मतको इस प्रकार सुसंस्कृत एवं उद्बुद्ध करो कि उस समयकी सरकार और संसद हमें हमारे अधिकार देने में समर्थ हो सकें । " सिर्फ पारस्परिक सहयोग और