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कानूनी स्थिति

प्रवासी बन जाते हैं तो गृह-सचिवने गांधीजीको जो पत्र लिखा है उसके पैरा २ का पहला हो वाक्य जिसमें ऐसे भारतीयोंको मुक्ति पत्र (डिस्चार्ज सर्टिफिकेट) जारी करनेकी व्यवस्था होती है, 'नेटाल मर्क्युरो' के कथनानुसार, उस श्रेणीसे उन्हें अलग नहीं करता। वह धारा, जैसा कि 'मर्क्युरी' शायद हमें विश्वास दिलाये, इस उद्देश्यसे नहीं जोड़ी गई थी कि इन गरीब लोगोंको अधिवासका अधिकार उपलब्ध हो । वह तो महज इसीलिए जोड़ी गई थी कि ये लोग पुलिसकी तंग करनेवाली पूछताछसे मुक्त होकर प्रान्तमें घूम- फिर सकें तथा पार-पत्र न होनेके कारण गिरफ्तारीसे बच सकें। अब 'मर्क्युरी' का तर्क यह है कि यदि ये लोग कर नहीं देते तो अपने अनुबन्धकी दो अन्य शर्तोमें से एकको पूरी करें, अर्थात् या तो ये फिर गिरमिटमें बँध जायें या भारत लौट जायें। यदि ये इन दोनों में से एक भी शर्त पूरी नहीं करते तो यह दलील दी जाती है कि वे पिछले वर्षके प्रवासी विनियमन अधिनियमके खण्ड ३० के अन्तर्गत निषिद्ध प्रवासी घोषित किये जा सकते हैं। उक्त खण्ड उन लोगोंको, जिन्होंने संघमें कुछ शर्तोंके साथ निवासके लिए प्रवेश किया हो, निषिद्ध प्रवासी घोषित करके 'अधिवास' शब्दकी व्याख्या करता है । यदि उपर्युक्त तर्क ठीक होते तो जिन भारतीयोंने वर्षोंसे कर नहीं दिया वे सब प्रवासी विनियमन अधिनियम के पास होने पर तुरन्त ही निषिद्ध प्रवासी घोषित किये जा सकते थे और प्रान्तसे बाहर खदेड़े जा सकते थे। परन्तु ऐसी कोई कार्रवाई नहीं की गई। दुबारा गिरमिटकी या वापस लौट जानेकी शर्त रखनेवाले अनुबन्ध प्रवासी न्यास निकायके साथ होते हैं जो एक गैर-सरकारी संस्था है। कानूनका यह एक सुविदित सिद्धान्त है कि जो अनुबन्ध सार्वजनिक नैतिकताके प्रतिकूल हैं या जो व्यक्तिगत स्वतन्त्रतापर प्रतिबन्ध लगाते हैं, वे अवैध हैं। इसलिए वापस लौट जानेवाली धारा सार्वजनिक नैतिकता के प्रतिकूल होने तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रतापर प्रतिबन्ध लगानेके कारण अवैध है, और उसे कानूनके अनुसार वैध और प्रभावशाली बनाने के लिए एक विशेष संविधि (स्टेट्यूट) की आवश्यकता होगी। नेटालकी पिछली सरकारने यही तो कोशिश की थी किन्तु वह भारत सरकारसे ऐसा कराने में असफल रही; और तत्कालीन भारत सरकार केवल एक यह चीज करनेको राजी हुई कि जो व्यक्ति वापस न लौटें वे कर देनेके लिए बाध्य होंगे। वैसे यह बात भी गलत और शर्मनाक थी। अतएव करके हटा लिये जाने- पर स्वदेश भेजे जाने या दुबारा गिरमिटमें बँधनेकी धारा प्रभावहीन और निरर्थक हो जाती है। कानूनका एक और सिद्धान्त कि कोई भी संविधि, जो जनतापर डाले गये दायित्वके पूरे न किये जानेपर दण्डका विधान नहीं करती उस दायित्वको पूरा करानेके लिए जनताको बाध्य भी नहीं कर सकती। इसी बातको ट्रान्सवालके सर्वोच्च न्यायालयने एक मामले में, जो कि १८८५ के कानून ३ के अन्तर्गत चलाया गया था, स्पष्ट रूपसे निर्धारित किया था। उक्त कानूनके अनुसार भारतीयोंको बस्तियों में रहना चाहिए। यदि वे उस तरह बस्तियों में नहीं रहते तो इसके लिए उक्त कानूनमें किसी दण्डका विधान नहीं है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालयने यह माना है कि भारतीयोंको बस्तियों में रहनेके लिए बाध्य नहीं किया जा सकता और वह स्थिति ज्योंकी-त्यों

१. देखिए परिशिष्ट २६ ।