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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जब कभी उन दोनों हुतात्माओंकी याद करता हूँ और नारायणसामीको उपेक्षित समाधिका मुझे खयाल आता है, जिनकी अस्थियाँ अब लारेंको माक्विसमें पड़ी हुई हैं, तो मुझे लगता है कि इन हुतात्माओंकी सेवाओं की तुलनामें हम सबोंकी सेवाएँ तुच्छ हैं। श्रीमती पोलकने अभी-अभी मुझे याद दिलाया है कि हम लोगोंने इस लड़कीकी बीमारीकी तरफ कितना कम ध्यान दिया था, जिसका पार्थिव शरीर समाधिमें सोया हुआ है। श्री गांधीने डर्बन छोड़ने के समयके दृश्यका जिक्र किया जब वे पोलकके साथ वलिअम्माको जल्दीमें देखने गये थे। उन्होंने कहा कि वह अत्यन्त मार्मिक दृश्य था । वलिअम्मा बाहर आ रही थी। उसकी माँ वहाँ थी। उसकी माँ बहुत ही मृदुल और स्नेही स्वभावकी थीं। वे जल्दी मचा रही थीं कि वलिअम्मा बाहर निकले। ऐसे वक्त भी किसी प्रकारको जल्दी की जानेपर मुझे लज्जा आ रही थी। वलिअम्माको बाहर लाया गया। वह लग- भग मूछित अवस्थामें थी। हम तीनों मिलकर जितनी सावधानीसे सम्भव था उसे उठाकर बाहर लाये। उसके कमरेमें न तो कोई गद्दा था, और न कोई स्ट्रेचर | जिस कमरेमें वह पड़ी थी वहाँ केवल लकड़ीका फर्श था। यह बात नहीं कि वे लोग उसके प्रति कोई निष्ठुरता बरत रहे थे। परन्तु उस समय उनका अनुशासन ही ऐसा कड़ा और कष्टकर था। जिन थम्बी नायडूके सिपुर्द यह काम था वे और कोई चीज रखने या साथमें लेनेका विचार तक करनेको तैयार नहीं थे। जेलके भीतर और बाहर उसकी यही हालत थी। खुद उसका अपना उत्साह भी ऐसा ही था । वलिअम्माके साथ, वैसी ही दशामें, एक और महिला थी जिसके उसी समय बच्चा हुआ था । उसका उत्साह भी ऐसा ही था। श्री गांधीने कहा, मैं नहीं जानता कि हम लोगोंसे तब कहीं-कोई बहुत भारी अपराध तो नहीं हुआ ! दूसरी तरफ सत्याग्रहीको हैसियत से अपने कर्त्तव्यका खयाल होता है तब में असमंजसमें पड़ जाता हूँ, क्योंकि सत्याग्रहीके नाते हम आत्मा- को अमर समझते हैं। और शरीर तो आत्माके अधीन है। इसलिए आत्माकी पूर्णता प्राप्त करने के लिए अगर शरीरको गँवाना भी पड़े तो वह ठीक ही है। अगर वलिअम्मा- को में थोड़ा भी जानता हूँ तो कहूँगा कि वह खुद कभी यह न चाहती कि अपनी दूसरी बहनोंकी अपेक्षा उसके साथ अच्छा व्यवहार हो । इन दृश्योंको मैं कभी भुला नहीं सकूँगा | नागप्पनका चेहरा उन्हें इतनी अच्छी तरह याद नहीं है, जितना वलि- अम्माका । परन्तु उन्हें इतना जरूर मालूम है कि उस भयानक शिविर-जेलमें उस बहादुर लड़केको कड़कड़ाती समें कितना भयंकर कष्ट उठाना पड़ा था। उसे वहाँ भेजनकी जरा भी जरूरत नहीं थी। परन्तु उस समय तो सरकारकी इच्छा सिर्फ यह थी कि जैसे-बने-वैसे सत्याग्रहियोंकी हिम्मत तोड़ दी जाये । परन्तु आज वे समझने लगे हैं कि नागप्पनका हृदय फौलादका बना हुआ था । जर्जर शरीरको लेकर वह जेलसे बाहर आया। परन्तु उसने कहा: चिन्ताको क्या बात है? मुझे एक ही बार तो मरना है। अगर जरूरत हो तो में फिर जेल जानेको तैयार हूँ। इस तरह उस बहादुर लड़केने अपना बलिदान दे दिया। परन्तु ये लोग मरे नहीं हैं। प्रत्येक भारतीयके