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३६८. पत्र : दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंको

[ जोहानिसबर्ग

जुलाई १५,१९१४ के पूर्व ]

प्यारे भाई अथवा बहन,

में दक्षिण आफ्रिका छोड़कर जा रहा हूँ। इस समय मेरा मन दो शब्द लिख जानेको चाहता है।

इस देशमें [ अपने प्रति ] भारतीयोंके प्रेमका मैंने जो अनुभव किया है वह अगाध है। मेरा विश्वास है कि ऐसा प्रेम दिखानेवाली प्रजा सदैव उन्नति करेगी। 'हमारा समाज अकृतज्ञ है', मैं ऐसे शब्द सुनता हूँ। मेरा अन्तःकरण यह साक्षी देता है कि ये अज्ञानवश और उतावलीमें कहे हुए शब्द हैं। यदि भारतीय समाज ऐसा होता तो मुझे भारतका पुत्र कहलाने में अभिमान न होता और 'हिन्द दुनियानो विसामो छे" यह भव्य कविता [भी] मैं शुद्ध मनसे नहीं गा सकता।

मैंने भारतीयोंके अलौकिक प्रेमका अनुभव किया है, फिर भी कुछ-एक व्यक्तियोंने यह मान लिया है--और दूसरोंने उनके इस विश्वासको उत्तेजन दिया है कि वे मेरे शत्रु हैं। लेकिन मैं उनको अपना शत्रु नहीं मानता। विरुद्ध बोलनेवाले लोग अनेक बार सच्चे मित्र साबित होते हैं। मेरे सम्बन्धमें भी वैसा ही है या नहीं, फिलहाल मैं इसपर विचार नहीं करता। लेकिन मैं यह बताना चाहता हूँ कि वे मेरे विरुद्ध बोलते है, इसमें मैं सर्वथा निर्दोष नहीं हूँ। मेरे [मन] में यदि उनके प्रति पूर्ण प्रेम-भाव हो तो वे मुझपर कटाक्ष कर ही नहीं सकते। किन्तु ऐसा सम्पूर्ण प्रेम करनेवाला भाग्यवान व्यक्ति विरला ही हो सकता है। जबतक ऐसा सम्पूर्ण प्रेम मुझे नहीं सघता तबतक मैं उनका विरोध सहन करूंगा; उनको मैं अपना शत्रु नहीं मानूंगा।

इस देशमें भारतीयोंके शान्तिसे रहनेके सरल और उत्तम उपाय हैं। [अमुक ] हिन्दू, मुसलमान, ईसाई और पारसी [ है] इस धर्म-द्वेषको भूल जाओ। बंगाली, मद्रासी, गुजराती, पंजाबीके प्रान्तीय भेदको नष्ट कर दो; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि वर्णोंमें विभाजित करनेवाले ऊँच-नीचके विचारोंको त्याग दो। सब भारतीयोंको एक ही कानूनका मुकाबिला करना है; उसके विरुद्ध हम अलग-अलग होकर कैसे लड़ सकते हैं ?

हमको सत्यका पालन तो करना ही होगा। इस देशमें [ रहनेवाले ] सब भारतीय सत्यका पालन करेंगे, ऐसी आशा करना व्यर्थ है, यह मैं समझता हूँ। लेकिन इतना तो किया ही जाना चाहिए कि हम मोटे तौरपर सत्यका पालन करने में समर्थ बनें। नहीं तो भारतीय, भारतीय तथा मनुष्यकी हैसियतसे यहाँ रह ही नहीं सकते।

१. भारत संसारको विश्रामस्थली है।