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भाषण: विदाई-भोजमें

काम किया, जिससे गिरमिटिया भारतीयोंको एक ऐसे करसे मुक्ति मिली, जिसे अदा करनेके लिए उनसे कभी कहना ही नहीं चाहिए था, और यदि उस आगन्तुकसे यह भी कह दिया जाय कि विवाह के सम्बन्ध में भी उन्हें कुछ राहत दी गई है और उनकी पत्नियाँ, जिनके साथ उनका अपने धर्मके अनुसार विवाह हुआ है और जो अबतक उनकी वैध पत्नियाँ नहीं मानी जाती थीं, अब इस समझौते के कारण दक्षिण आफ्रिकाके कानूनके अनुसार वैध पत्नियाँ मानी जायेंगी, तो वह हँसेगा और समझेगा कि वे भारतीय या यूरोपीय, जो इस भोजमें हमारे साथ शामिल हुए हैं और जो प्रशंसाओंके पुल बाँध रहे हैं, सब मूर्ख हैं। एक ऐसे असहनीय बोझको हटवा देनेमें, जो वर्षों पहले हटा दिया जाना चाहिए था, इतने फूल उठनेको क्या बात है ? दक्षिण आफ्रिका-जैसे स्थानमें वैध पत्नीको मान्यता मिलना कोई बड़ी बात नहीं है। परन्तु, आज में श्री डंकनके उस लेखसे सहमत हूँ जो उन्होंने कुछ वर्ष पहले लिखा था। उसमें उन्होंने संघर्षका वास्त- विक निरूपण करते हुए लिखा था कि ठोस अधिकारोंके उस संघर्षके पीछे एक उदात्त मनोभाव निहित है जो न्यायके अमूर्त सिद्धान्तका आग्रह करता है और जो संघर्ष १९०६ में शुरू किया गया था वह यद्यपि एक विशेष कानूनके विरुद्ध छेड़ा गया था, फिर भी उसका मन्शा उस भावनाका मुकाबला करना था जो सारे दक्षिण आफ्रिकापर हावी होती जा रही थी तथा जिससे उस शानदार ब्रिटिश संविधानकी जड़ें खोखली होती दिखाई देती थी जिसके बारेमें अध्यक्षने आज इतने उदात्त विचार व्यक्त किये हैं। उनके इन विचारोंसे में भी सहमत हूँ। मेरा ब्रिटिश संविधान के विषयमें सही अथवा गलत ज्ञान ही मुझे साम्राज्यसे बाँधे है। उस संविधानको धज्जियाँ उड़नेपर मेरी राजभक्तिकी भी धज्जियाँ उड़ जायेंगी । संविधानको ज्योंका- त्यों बनाकर रखिए और आप देखेंगे कि मैं संविधानका दास बन जाऊँगा। जब यह भावना दक्षिण आफ्रिकापर हावी हो गई थी तब मैंने महसूस किया कि मेरे और मेरे देशभाइयोंके सामने दो मार्ग हैं, जिनमें से हमें एकको चुनना है। या तो हमें अपनेको ब्रिटिश संविधानसे बिलकुल अलग कर देना है या उस संविधानके आदर्शोंको बनाये रखनेके लिए संघर्ष करता है, किन्तु केवल आदशोंको बनाये रखनेके लिए ही। श्री डोककी पुस्तककी भूमिका में लॉर्ड ऍम्टहिलने कहा है कि यदि ब्रिटिश साम्राज्यको उन भूलोंसे बचाना है जो पूर्ववर्ती साम्राज्यों की हैं, तो ब्रिटिश संविधानके सिद्धान्तोंको हर मूल्यपर बनाये रखना चाहिए । सम्भव है कि स्थानीय परिस्थितियोंके कारण मजबूर होकर कुछ समयके लिए अस्थायी तौरपर व्यवहारमें नियम भंग करना पड़े, सम्भव है कि तर्कहीनता और अनुचित पूर्वग्रहोंके सामने व्यवहारमें झुकना पड़े, किन्तु संविधानके आधारभूत सिद्धान्तसे, एक बार उसे मान लेनेपर, कदापि दूर नहीं हटा जा सकता और यह सिद्धान्त हर मूल्यपर बनाये रखना चाहिए। और यही सही भावना है जिसे संघ-सरकारने स्वीकार किया है--और कितने भव्य और उदात्त ढंगसे स्वीकार किया

१. देखिए खण्ड ९, परिशिष्ट १८ ।