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भाषण: विदाई-भोजमें

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सौंप दी है। कौन जाने हम उन बच्चोंकी जिम्मेदारी लेने योग्य हैं या नहीं। मैं केवल इतना ही आश्वासन दे सकता हूँ कि हम अपनी पूरी कोशिश करेंगे। जब मैं टॉल्स्टॉय फार्ममें और बादको फीनिक्समें सत्याग्रहियोंके लिए स्कूल चला रहा था तब ये चारों बालक मेरे शिष्य रह चुके हैं। जब श्रीमती नायडू कैद हो गईं और बच्चे जोहानिसबर्ग ले जाये गये तब मैंने सोचा कि मैंने ये चारों रत्न गँवा दिये; परन्तु वे रत्न मेरे पास फिर वापस आ गये हैं। मुझे आशा है कि हम दोनों इस बहुमूल्य उपहारकी जिम्मे- दारी निभा सकेंगे।

मेरे लिए जोहानिसबर्ग नई जगह नहीं है। यहाँ मुझे कई जाने-पहचाने चेहरे दीख रहे हैं जिनमें से बहुतेरे मेरे साथ जोहानिसबर्ग के कई संघर्षोंमें भाग ले चुके हैं। मैंने जीवनमें बहुत कुछ देखा है। मेरे भाग्यमें बहुत-से दुःख और कष्ट रहे हैं, किन्तु इन तमाम वर्षोंमें मैंने जोहानिसबर्गको प्यार करना भी सीखा है । यद्यपि यह शहर केवल खनिकोंका एक केन्द्र है, पर मुझे अपने सबसे अधिक मूल्यवान मित्र यहीं मिले। जोहानिसबर्गमें ही सितम्बर १९०६ में सत्याग्रहके महान् संघर्षकी नींव पड़ी। जोहा- निसबर्ग में ही मुझे स्वर्गीय श्री डोकके रूपमें एक मित्र, पथ-प्रदर्शक और अपना जीवन- वृत्तान्त-लेखक मिला। जोहानिसबर्गमें ही मुझे श्रीमती डोकके रूपमें एक स्नेहमयी बहन मिलीं, जिन्होंने उस समय जब कि मेरे एक देशभाईने मेरे उद्देश्यको तथा जो-कुछ मैंने किया उसे गलत समझकर मुझपर आक्रमण किया था, मेरी परिचर्या कर मुझे जीवन- दान दिया था। जोहानिसबर्ग में ही मुझे कैलेनबैक, पोलक, कुमारी श्लेसिन और कई अन्य लोग मिले, जिन्होंने हमेशा मेरी मदद की और मुझे तथा मेरे देशवासियोंको प्रोत्साहन दिया। इसलिए हम दोनों जिन पवित्र स्मृतियोंको अपने साथ वापस भारत ले जायेंगे, उनमें सबसे पवित्र स्मृतियाँ जोहानिसबर्गसे सम्बन्धित होंगी। और जैसा मैंने पहले अन्य कई जगह कहा है, मेरे और मेरे परिवारके लिए भारतके बाद सबसे पवित्र भूमि दक्षिण आफ्रिका होगी, क्योंकि तमाम कटुताओंके बावजूद, इसने हमें जीवन-भरके ये साथी दिये हैं। और फिर जोहानिसबर्गमें ही, उस समय जब कि भारतीय अपने इति- हासके सबसे अँधेरे कालसे गुजर रहे थे, यूरोपीय समितिका गठन हुआ। श्री हॉस्केन उसके अध्यक्ष तब भी थे और अब भी हैं। अन्तमें एक और बात है जो कम महत्त्वकी नहीं है -- जोहानिसबर्गने वह छोटी लड़की वलिअम्मा दी, जिसका चित्र अभी बोलते समय भी मेरे सामने उभर आया है और जिसने सत्यके लिए अपने जीवनका उत्सर्ग किया। सरल स्वभावकी इस श्रद्धालु बालिकाका ज्ञान वैसा नहीं था, जैसा मेरा है--उसे यह नहीं मालूम था कि सत्याग्रह क्या चीज है, वह यह भी नहीं जानती थी कि इससे समाजको क्या लाभ होगा, किन्तु देशवासियोंके प्रति प्रेमकी प्रबल भावनासे वह अभिभूत हो गई--जेल गई, वहाँसे लौटी, तब उसका शरीर बिलकुल जर्जर हो चुका था और कुछ ही दिनोंमें वह चल बसी। फिर, जोहानिसबर्गने ही नागप्पन और नारायणसामी जैसे दो प्यारे नवयुवक दिये, जो मुश्किलसे किशोरवय

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